बातें कही - अनकही
सुना था उम्मीद पर दुनिया चलती है, सो यहीं सुनकर मैं भी चले जा रहा है । सच कहूँ तो यह उम्मीद नाम की ईंधन बड़ी कमाल की चीज़ है पंक्चर से पंक्चर आदमी को भी अपने ज़ारिये घसीटे रखती है । लेकिन कल शाम को रही - सही उम्मीदी ईंधन भी खत्म हो गई । कल शाम तक तो इसी खुशफहमी में जी रहा था की तुमसे जुड़ी हर याद को अपने ज़ेहन से खुरच - खुरच कर मिटा चुका हूं पर कल जब अपने भीतर उतरा तो पता चला की खुरचने को अब भी बहुत कुछ बचा है । तकरीबन 24 घंटे बीत चुके है यादों की परतों खरोचते हुए पर यह कम्बख्त खत्म होने का नाम नहीं ले रहे । अब लग रहा है की इन सब को खुरच दिया तो इसके बाद मेरे भीतर बचेगा क्या ? और बचने की बात तो छोड़ ही दो आखिर क्या - क्या खुर्चूंगा ? वो दिल्ली का हीरा स्वीट्स की गली वाला फ्लैट ? वो लक्ष्मीनगर का मैट्रो स्टेशन कि बैंच ? वो जामा मस्जिद की सीढ़ियां ? वो बंगला सहीब गुरुद्वारे की परिक्रमा ? वो राजीव चौक मैट्रो स्टेशन का गेट नम्बर 7 ? कालकाजी मंदिर की उस बूढ़ी अम्मा का आशिर्वाद या शायद पूरी जवानी । दिल अब भी मानने को तैयार नही है की अब तुम से बचा - खुचा रिश्ता भी अपने अंजाम क