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Showing posts from December, 2020

प्रिय कुर्सी......

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  लगभग 60-65 वर्ष की आयु का एक व्यक्ति बड़ी शान से चहलकदमी करते हुए आगे बढ़ता जा रहा है। उसके एक हाथ में 2 काले रंग की फ़ाईलें हैं और दूसरे में मोबाइल फ़ोन। बड़े ही भव्य गलियारे को पार करते हुए वह एक कमरे में प्रवेश करता है। दिखने में कमरा, गलियारे से भी भव्य था। विशाल आकार का सफ़ेद दीवारों वाला वह कमरा उजली रोशनी से नहाया हुआ था। कक्ष कीमती कलाकृतियों, चित्रों, भव्य सोफ़ा सेट,और एक विराट आकार के मेज़ से सुशोभित था। उस मेज़ कि दूसरी ओर एक सफ़ेद कुर्ता पजामा धारण किए हुए, एक 50-52 साल का चुस्त-दुरुस्त देह वाला व्यक्ति अपने फ़ोन पर कुछ टंकित करने में व्यस्त था।  उस वृद्ध के कमरे में प्रवेश करते ही उस सफ़ेद कुर्ते-पजामे वाले व्यक्ति की एकाग्रता भंग हो जाती है। वृद्ध व्यक्ति को देखते ही वह अपनी जगह से खड़ा हो जाता है और मुस्कुराते हुए कहता है- आइए सिन्हा जी, मैं सोच ही रहा था कि आप अब तक आए क्यों नहीं? (दोनों हाथ मिलाते हैं और सिन्हा जी मेज़ के इस पार लगी 2 कुर्सियों में से एक पर बैठ जाते हैं) सिन्हा जी- जी क्षमा करिए अभिनव बाबू । थोड़ी देर हो गई, असल में दयाल.... अभिनव- चलिए कोई बात नहीं। आप बता रहे थे

राम के नाम...

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  इस पिक्चर ने मुझे बाकी कुछ दिया हो या ना दिया हो, पर एक ऐसे प्रश्न का उत्तर अवश्य दे दिया जो मैं काफी समय से खोज रहा था। वह यह है कि जीवन में सबसे भयावह क्या होता है?  डर!  लेकिन कुछ और भी है तो इस सबसे भयावह से भी भयावह होता है। और वह है प्रेम का भय।  आप सोच रहे होंगी की यह स्थिति इसलिए भयावह होती है कि यहाँ आपको हर प्रेम भरी बोली में छल की गूँज सुनाई देने लगती है? या आशा की एक हल्की किरण से भी आपकी आँखोँ में चुभन होने लगती हैं? जी नहीं, बल्कि इसलिए होती है क्योंकि यहाँ आपको फर्क पड़ना बंद हो चुका होता है। यहाँ संवेदनशीलता और संवेदनहीनता को अलग करने वाली अच्छी भली सीमा रेखा भी मिटकर नाम मात्र की रह जाती है। और जब दोनों के बीच कोई स्पष्ट रेखा रह नहीं जाती, तो इसका घालमेल होना निश्चित हो जाता है। फिर संवेदनशीलता के उजलेपन और संवेदनहीनता के सियाहपन से तैयार होता है, एक स्लेटी रंग। धीरे-धीरे आपकी चेतना पूरी तरह इसी स्लेटी रन्ग में सनती चली जाती है। और फिर यहीं से आप वह बनते चले जाते हैं, जिससे आपको भय खाना चाहिए। क्योंकि इस स्लेटी रन्ग की परत इतनी मोटी होती है आपके लिए इसके परे देखना संभ

बेताल छब्बीसी (सोनपापड़ी विशेषांक)

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  बेताल ने अभी कूदकर विक्रम की पीठ पर अपने पैर जमाए ही थे की  विक्रम ने सेनिटाइज़र की बोतल उसके नाक के ठीक आगे लाकर टिका दी। सेनिटाइज़र की बोतल देख अनुराग से भरा बेताल ताव खा गया। भौहें सिकोड़ते हुए बोला- अब तुम भी?  विक्रम- हम भी मतलब? हाथ पर सेनिटाइज़र मलने के लिए ही तो कहें हैं? तुम तो ऐसे बऊरा रहे हो जैसे पता नहीं क्या कह दिए हों! बेताल- अरे मतलब अब हमसे सेनिटाइज़र घिसवाओगे? यार कुछ दिन तुमसे लॉकडाउन में क्या नहीं मिले, तुम्हरा तो माथे फिर गवा है! (अपने अन्तर्मन में कुछ रहस्यमयी शब्दों का उच्चारण करते हुए बेताल आखिर में चुल्लू भर सेनिटाइज़र हथेली में भरकर घिसने लगता है) विक्रम- (अपना मास्क नाक के ऊपर करते हुए) गनीमत करो की अभी हाथ पर भी घिसवा रहे हैं, नही तो अगर हमरा बस चले तो तुम्हरे ऊपर पूरा बाल्टा उलट दें! बेताल- भक्क बे! खैर छोड़ो। और बताओ दिवाली कैसी गुजरी। पड़ाका तो भडकाए नहीं होगे। बड़का कानूनची जो हो।  विक्रम- अरे ऐसा कुछ नहीं पड़ाका बजाना ही चाहें तो कौन रोक लेगा?  बेताल- सरकार तो तुम ही लोग की है! तुम्हरा वैसे भी कोई क्या उखाड लेगा? खैर छोड़ो और बताओ अम्मा का बनाए रहीं दिवाली पे? वि