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यक्ष प्रश्न 2.0

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  संसार को अब द्वापर से कलयुग में प्रवेश किए काफी समय बीत चुका था। मीमरों के प्रकोप से अब महाभारत की कथा भी अछूती नहीं रह गई थी। जो कार्य 90 के दशक में हरीश भिमानी जी ने 'समय' बनकर किया था, अब वहीं दायित्व मीमरों ने अपने सिर ले लिया था। पठन- पाठन को पहले ही नमस्कार कह चुकी इस पीढ़ी को अब महाभारत की कथा मीमर बांच रहे थे। बहरहाल महाभारत काल से लगाए अब तक कदाचित ही ऐसी कोई चीज़ बची थी, जिसमें परिवर्तन ना आया हो। मानव जाति के इन क्रिया-कलापों को देख असली वाले समय ने अब कथा बांचना बंद कर दिया था। क्योंकि समय अपनी दृष्टी से जिन चीजों को देख रहा था, वह बोलने के योग्य थीं नहीं और जो बोलने योग्य थीं, उन्हें कोई गम्भीरता से लेता नहीं। अब जब लोग समय को ही गम्भीरता से नहीं ले रहे थे, तो भला उसकी बातें कहाँ ठहरतीं? अतः समय ने भी परिस्तिथियों से समझौता करते हुए अपनी वाणी को विराम देने का निर्णय ले लिया और महादेव के तीसरे नेत्र के खुलने की प्रतीक्षा करने लगा। वहीं दूसरी ओर अगर कोई परिवर्तन की बयार से बचा हुआ था, तो वह थे यक्ष। यक्ष का वास अब भी उसी तालाब में था, जिसमें वह महाभारत काल में रहा

भाई ....

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  गोवा की राजधानी पणजी से 13 किलोमीटर मापुसा नाम का एक कस्बा पड़ता है। यहाँ पर्रा नाम का एक छोटा सा गाँव है। यह गाँव 2 चीज़ों के लिए जाना जाता है। एक है तरबूज और दूसरा है एक शख्स। आखिर वह कौन है, यह जानने के लिये आपको अंत तक चलना होगा। खैर, फिर लौटते हैं पर्रा की ओर जहाँ 60 और 70 के दशक में, जब यहाँ बम्बई जाना विदेश जाने के बराबर था। तब पर्रा की पहचान थी वहाँ का तरबूज़ मेला, जहाँ लोग मुफ्त में जितना चाहें उतना तरबूज खा सकते थे।  बस शर्त इतनी सी थी कि तरबूज़ को खाकर उसका बीज पास रखी हुई टोकरी में थूकना होता था। उन दिनों इस मेले में एक लड़का भी आया करता था।  कुछ समय बाद वह लड़का अपनी आगे की पढ़ाई के लिए बंबई चला गया। कुछ साल बाद जब वह वापस गोवा लौटा तो उसका ठिकाना मापुसा से बदलकर पणजी हो चुका था। एक दिन वह बाज़ार गया तो वह जानकर हैरान रह गया की अब बाज़ार में मापुसा के तरबूज नहीं मिलते।  फिर जब वह तरबूज की खोज में पर्रा पहुँचा तो उसने पाया की तरबूज मेला करवाने वाले ज़्यादातर किसान या तो अब किसानी अपने बेटों को सौंप चुके हैं या अब वह नहीं रहे।  जब कमान उनके बेटों के हाथ आई तो उन्होने तरबूज मेले में

बेताल छब्बीसी (भाग-2)

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 खदेडू की दुकान पर चाय-समोसे के साथ इलाके भर की खबरें, कंठ के नीचे पेट भर उतारने के बाद विक्रम-बेताल अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। अभी कुछ दूर चले ही थे कि सामने का दृश्य देखकर दोनों आतंकित हो उठे। सामने से हवलदार पटकन सिंह और हुडदंगी लाल अपनी तोंद छलकाते हुए चले आ रहे थे। हालाँकि उनके चेहरे पर मास्क चढ़ा हुआ था, लेकिन उनके डील-डौल और शारिरीक हाव भाव से उन्हें पहचानना किंचित मात्र भी कठिन नहीं था। दोनों अपने - अपने तंत्रसंचालक अर्थात डंडे, ज़मीन पर पीटते हुए काल की गति से आगे बढ़ रहे थे।  इन्हें देखते ही बेताल ने हड़बड़ी में मास्क पहनने लगा। वहीं पहले से ही मास्क धारण किए बैठे विक्रम ने भी मास्क को थोड़ा ऊपर चढ़ाया। इतने में चलते हुए दोनों हवलदारों के करीब आ गए। पटकन सिन्ह गरज़ते हुए मास्क के भीतर से ही बोले-  "सुने हो ना, जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं। केस कम हो गए इसका मतलब यह नहीं है कि कोरोना खतम हो गया। कोरोना अभी यहीं है और हम भी, ताकि कोई ढिलाई ना बरते। समझे की नहीं?"    कहते हुए पटकन सिंह और हुडदंगी लाल दोनों आगे बढ़ गए। चूँकि सोशल डिस्टेनसिंग की धज्जियाँ हर कोई उड़ा रहा था, ऐस

Cricket Before Crush

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          ऐसा नहीं है कि मेरा, क्रिकेट, और मायूसी का नाता कोई नया है। यह नाता तब का है जब धोनी खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर यात्रिओं के टिकट चेक कर रहे थे, अटल- आड़वाणी की जोड़ी 'इंडिया शाईनिंग' के नारे को गढ़ने में व्यस्त थी, वसीम और वक़ार पाकिस्तानी गेंदबाज़ी की धुरी थे, वर्तमान पाकिस्तानी पेस बैटरी के सितारे नसीम शाह मात्र एक महीने के थे और पलंग में लोटे, किलकारि भर रहे थे। सद्दाम हुसैन का सिक्का इराक़ पर जमकर चल रहा था और सेट मैक्स पर सूर्यवंशम और डॉन नं. 1 के अलावा क्रिकेट भी आता था। 23 मार्च 2003 का दिन था, प्रमुख खबरों में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और कश्मीर के नदिमर्ग में मारे गए 24 कश्मीरी पंडित होते अगर भारत ऑस्ट्रेलिया के साथ विश्व कप के फाइनल में भिड़ नहीं रहा होता।  वहीं टीम जिसका एक महीने पहले नीदरलैंड के हाथों लगभग छीछालेदर होते-होते बचा था, आज कप जीतने से सिर्फ एक पग दूर थी। देश भर में खेल प्रेमियों का जुनून अपने उरूज पर था।  क्रिकेट के शौकीन पिता जी ने मेरे लिए बड़े चाव से एक भारतीय टीम की जर्सी बनवाई थी, जिसपर मेरा नाम लिखा था। हर खास दिन की तरह, उस दिन भी समय ने भी अपनी च

एक नज़रिया और.............

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 कथा - कैदी                                          लेखिका - अंजलि चौधरी बात आज से कुछ वर्ष पूर्व की है, जब रंगमंच शब्द से वास्तव में मेरा परिचय होना आरंभ ही हुआ था। इसी क्रम में उन दिनों मंडी हाउस के विख्यात श्री राम आर्ट सेंटर में मेरा आवागमन सहसा बढ़ गया था। उसी गति से, जिस गति से उन दिनों अवैध बूचड़खानों की तरह नए-नए यूट्यूब चैनल उपट रहे थे।  उस परिसर में इतना रम चुका था कि प्रांगण के भीतर होने वाले काल्पनिक कथाओं पर आधारित नाटक से लगाए, बाहर सड़क पर होने वाले असली तमाशे की पटकथा, संवाद सबकुछ कंठस्थ हो चुके थे। एकदिन परिसर के प्रांगण में चकल्लस झाड़ते हुए एक छोटे से हस्तनिर्मित पोस्टर पर नज़र पड़ी।  उसपर अन्ग्रेजी में एक कथन उकेरा हुआ था, जो कुछ यूँ था-  "Our demands are simple, normal, and therefore they are difficult to satisfy. All we ask is that an actor on the stage live in accordance with natural laws." इसके ठीक नीचे एक नाम लिखा था, जिसे पूरा पढ़ने हेतु मुझे 2-3 प्रयास करने पड़े।  वह नाम था Konstantin Stanislavski.   हर काम की बात की तरह, यह बात भी उस समय बुद्धि के बंद पड़

प्रिय कुर्सी......

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  लगभग 60-65 वर्ष की आयु का एक व्यक्ति बड़ी शान से चहलकदमी करते हुए आगे बढ़ता जा रहा है। उसके एक हाथ में 2 काले रंग की फ़ाईलें हैं और दूसरे में मोबाइल फ़ोन। बड़े ही भव्य गलियारे को पार करते हुए वह एक कमरे में प्रवेश करता है। दिखने में कमरा, गलियारे से भी भव्य था। विशाल आकार का सफ़ेद दीवारों वाला वह कमरा उजली रोशनी से नहाया हुआ था। कक्ष कीमती कलाकृतियों, चित्रों, भव्य सोफ़ा सेट,और एक विराट आकार के मेज़ से सुशोभित था। उस मेज़ कि दूसरी ओर एक सफ़ेद कुर्ता पजामा धारण किए हुए, एक 50-52 साल का चुस्त-दुरुस्त देह वाला व्यक्ति अपने फ़ोन पर कुछ टंकित करने में व्यस्त था।  उस वृद्ध के कमरे में प्रवेश करते ही उस सफ़ेद कुर्ते-पजामे वाले व्यक्ति की एकाग्रता भंग हो जाती है। वृद्ध व्यक्ति को देखते ही वह अपनी जगह से खड़ा हो जाता है और मुस्कुराते हुए कहता है- आइए सिन्हा जी, मैं सोच ही रहा था कि आप अब तक आए क्यों नहीं? (दोनों हाथ मिलाते हैं और सिन्हा जी मेज़ के इस पार लगी 2 कुर्सियों में से एक पर बैठ जाते हैं) सिन्हा जी- जी क्षमा करिए अभिनव बाबू । थोड़ी देर हो गई, असल में दयाल.... अभिनव- चलिए कोई बात नहीं। आप बता रहे थे

राम के नाम...

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  इस पिक्चर ने मुझे बाकी कुछ दिया हो या ना दिया हो, पर एक ऐसे प्रश्न का उत्तर अवश्य दे दिया जो मैं काफी समय से खोज रहा था। वह यह है कि जीवन में सबसे भयावह क्या होता है?  डर!  लेकिन कुछ और भी है तो इस सबसे भयावह से भी भयावह होता है। और वह है प्रेम का भय।  आप सोच रहे होंगी की यह स्थिति इसलिए भयावह होती है कि यहाँ आपको हर प्रेम भरी बोली में छल की गूँज सुनाई देने लगती है? या आशा की एक हल्की किरण से भी आपकी आँखोँ में चुभन होने लगती हैं? जी नहीं, बल्कि इसलिए होती है क्योंकि यहाँ आपको फर्क पड़ना बंद हो चुका होता है। यहाँ संवेदनशीलता और संवेदनहीनता को अलग करने वाली अच्छी भली सीमा रेखा भी मिटकर नाम मात्र की रह जाती है। और जब दोनों के बीच कोई स्पष्ट रेखा रह नहीं जाती, तो इसका घालमेल होना निश्चित हो जाता है। फिर संवेदनशीलता के उजलेपन और संवेदनहीनता के सियाहपन से तैयार होता है, एक स्लेटी रंग। धीरे-धीरे आपकी चेतना पूरी तरह इसी स्लेटी रन्ग में सनती चली जाती है। और फिर यहीं से आप वह बनते चले जाते हैं, जिससे आपको भय खाना चाहिए। क्योंकि इस स्लेटी रन्ग की परत इतनी मोटी होती है आपके लिए इसके परे देखना संभ