कई चेहरे हैं इस दिल के...
ग़ालिबन 2005 का शुरुआती वक़्त रहा होगा। उन दिनों अपनी ज़िंदगी का तंबू कुल जमा 4 बंबूओं पर टिका हुआ था। क्रिकेट, वीडियो गेम, कार्टून और गाने। अमूमन पहले 3 शौक, रात के पहले पहर तक निपटा लिए जाते थे और आखिरी शौक के लिए रात का दूसरा पहर खुसूसी तौर पर छंटा हुआ होता था। चूँकि उन दिनों मोबाइल फ़ोन या आई- पॉड थे नहीं, ऐसे में गाने सुनने के ज़रिए कुल जमा 2-3 ही थे। टीवी, स्टीरियो, वॉकमैन या रेडिओ। मेरा पसंदीदा ज़रिया था टीवी, जिसके चालू होते ही उंगलियाँ तेज़ी से 72 नम्बर दबाती थीं। क्योंकि उन दिनों हमारे केबल नेट्वर्क पर MTV का यहीं ठिकाना हुआ करता था। हालाँकि यह सब सुनने में जितना आसान लगता है उतना था नहीं। उन दिनों टीवी रिमोट अपने पास रखने से ज़्यादा आसान फूटबाल के मैच में गेंद अपने पास रखना था। पर उस दिन अपना मुस्तकबिल पूरे शबाब पर था। चूँकि मम्मी- पापा किसी शादी में गए थे, इसलिए उस दिन घर में हुकूमत अपनी थी। घर पर रुकने का असल मकसद तो अगले दिन होने वाले इम्तिहान की तैयारी थी, पर उस बाबत आगे कुछ ना ही कहूँ तो बेहतर है। बहरहाल टीवी चलाकर, दीवार पर गेंद मारकर उसे कैच करने लगा। जब यह खिल