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Showing posts from May, 2020

सच का पंचनामा

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एक समय था जब सच, मात्र सच हुआ करता था। फिर जैसे-जैसे मानव बुद्धि का विकास हुआ, वैसे- वैसे सच की भी सदगति/दुर्गती होती चली गई। सबसे पहले तो मानव ने अपनी सुविधा अनुसार आरे से रेंतकर सच के 3 टुकड़े किए। जिसमें से पहला टुकडा निकला 'मेरा सच', दूसरा निकला 'तेरा सच' और वह 'असली वाला सच,' जिसका वर्चस्व कभी पूरी मानव जाति पर हुआ करता था, वह लुढ़ककर तीसरे पायदान पर पहुँच गया। खैर, सच की सदगति/ दुर्गति का क्रम यहीं नहीं रुका। फिर सच को किसी गद्दे की भान्ति सूत-सूतकर उसपर धार्मिक लबादा चढ़ाया गया। तो अब वस्तु स्थिति यह थी की सत्य कुल जमा 6-7 वैरायटीयों में उप्लब्ध हो चुका था।  लेकिन संतुष्टी से मानव का बैर सदैव ही रहा है। फिर कुछ वक़्त बीता , तो मानव सच की उप्लब्ध वैरायटीयों से ऊबने लगा। बुद्धिजीवीयों ने सोचा की इससे पहले की लोग फिर वहीं 'असली वाला सच' माँगने लगें, उन्हें कोई नया शिगूफ़ा थमाया जाए। अतः तमाम मंत्रोच्चार के बाद टोपी से एक 'लेफ्ट वाला सच' निकाला गया। इसे कुछ लोगों ने तो हाथों हाथ लिया, मगर कुछ की इस नए झुनझुने से नहीं पटी। सो इसकी

टिटिहरा कहिन....

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आज सालों बाद फिर एक पुरानी पुस्तक हाथ लगी। पुस्तक थी 5वीं कक्षा के वेल्यू एजुकेशन विषय की। एक समय था जब यहीं वेल्यू एजुकेशन की पुस्तक बहुत प्रिय हुआ करती थी, पर समय बीतते ना बीतते इसी एजुकेशन की वेल्यू पर धूल की तहें जमती चली गईं। बहरहाल किताब के तमाम पन्नों से होते हुए नज़रें एक विशेष पन्ने पर जा टिकिं। नज़रें कुछ देर तक उस एक ही पन्ने पर नाचती रहीं। पन्ने पर छपे अक्षरों को पढ़कर आँखों के आगे कुछ चेहरे घूम गए। उनमें एक चेहरा था सुप्रीम कोर्ट के एक तथाकथित 'जाने-माने वकील' का। जो अब से कुछ दिन पहले ही रामायण और महाभारत को अफीम कहने की वजह से सोशल मीडिया पर जनता द्वारा चोटियाए गए थे। पर वह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का, जिसने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाकर उनके संकट को हरा, नहीं तो महोदय की जेल यात्रा का टिकट लगभग कट ही चुका था। गौरतलब है की यहीं महानुभाव कई बार इसी सुप्रीम कोर्ट को मिनरल वाटर पी-पीकर कोस चुके हैं। पर चूँकि आदमी बड़े हैं, इसलिए उन्हें कई चीजों की माफी हैं। बहरहाल उस पन्ने पर छपे अक्षरों पर फिर से लौटते हैं। उस पन्ने पर छपे अक्षर पंचतन्त्र की एक प्रसिद्ध कथा क

अतीत का दरवाज़ा by प्रत्यक्ष

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सूरज से लड़कर लौट आता हूँ घर,   अब नंगे पाँव चलने से छाले नहीं पड़ते। सच में, दर्द अब थोड़ा कम होता है, भूख और प्यास से निवाले नहीं लड़ते। गाँव की पहचान भूल चुका हूँ कब का,  गली कूचो में पूरे दिन भटकता रहता हूँ। बंद कमरे में सीलन की चादर ओढे, तारे-सा अंधेरे में सिमटता रहता हूँ ।  अलमारी के किवाड़ कभी-कभी खुलते ही नहीं,  रोशनदान ने भी खुलने से अब मना कर दिया है।  मकड़ियों के जाले उँगलियों में यूँ ही उलझ जाते हैं,  दीवार की रंगत ने ख़ुद को फ़ना कर दिया है।  किताबों के पन्ने दीमक रोज़ कुतर रहे है, लम्बी पड़ी मेज़ पर कोई चश्मे दिखते नहीं। किताबें अपनी ही कहानियों को खा रहे है,  अब ये गाँव के किसी दुकान पर बिकते नहीं। वह बंद पड़ा टीवी शायद चल जाए ठोक पीट कर, पहले की तरह वह आज भी कमरे का उजाला है।  आँखों में कितने ही ख़्वाहिशों के रंग छन जाते हो,  लोगों की तरह वो आज भी सफ़ेद और काला है।  इस घर के आँगन में तुलसी की टहनियाँ बची हैं, पूजा और पानी दिखे एक ज़माना हो गया होगा।  प्रशाद में मिश्री का, चिटियाँ इंतज़ार नहीं करती  शायद

Sedang Sedang Saja

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हम में से जो लोग सन् 90 के समय वाले संगीत का चाव रखते हैं, उन्हें आमिर खान की फिल्म 'मन' ज़रुर याद होगी। पिक्चर से ज़्यादा नाम इसके संगीत ने कमाया था। भले इस फिल्म को 20 वर्षों से अधिक हो चुका हो, पर आज भी उत्तर भारत के कस्बाई बाज़ारों में इसके 'काली नागिन के जैसी' हो या 'चाहा है तुझको' जैसे गीत गाहे-बगाहे सुनने को मिल जाएँगे। पर इनके गीतों के अलावा इस चलचित्र में एक गीत और भी था, जिसने उस वक़्त चौक- चौराहे से लगाए चित्रहार तक गज़ब की धूम मचाई थी। और वह गीत था- "तिनक तिन ताना, वह धून तो बजाना।" कुछ याद आया? खैर अगर नहीं आया तो एक बार इस यूट्यूब लिंक की सैर कर आइए, मोटे चेक की टी-शर्ट में झूमते आमिर खान को देखकर ज़रुर याद आ जाएगा। https://youtu.be/Y01NQiOz2nw पर गाने से भी ज़्यादा रोचक इससे जुड़ी एक बात है, जो शायद इस गाने जितनी तो लोकप्रिय नहीं है, पर रोचक उतनी ही है। बहुत कम ही लोग जानते हैं की यह गाना सन् 1997 के मलेशियाई गाने 'Sedang Sedang Saja' की नकल है और इसे गाने वाले कलाकार हैं Wan Syahman bin Wan Yunus उर्फ Iwan. ht