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Showing posts from July, 2019

नियति- 1

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कार ठीक - ठाक रफ्तार में सड़क पर बढ़ रही थी, क्योंकि सड़क चंडीगढ़ की थी इसलिए जाम जैसी ट्रैफिक जाम चीज़ का स्वाद यहाँ कहाँ । गाड़ी के पिछ्ली सीट पर बैठा अरविंद एक चर्च की इमारत को ऐसे निहारे जा रहा था मानो वहाँ बैठे खुदा से कोई गहरी शिकायत कर रहा हो । अरविंद ऊपरी तौर पर खुद को अपनी पारिवारिक बंधनों के चलते, बतौर आस्तिक ज़रूर पेश करता था, पर रूहानी और जज़्बाती तौर पर वो एक नास्तिक बन चुका था। शायद उसने ईश्वर को उस रात के लिए आजतक माफ नहीं किया था जब ओम का जाप करते हुए अरविंद के सामने उसके पिता चक्कर खा कर गिर पड़े थे। बहरहाल इन्हीं सब के बीच अरविंद के दाहिने हाथ नें जकड़े हुए फ़ोन पर एक वॉट्सएप्प संदेश प्रसारित होता है । संदेश ऐसे नम्बर से आया था जो अरविंद के फ़ोन में सेव नहीं था पर उस नम्बर से अरविंद अंजान हो ऐसा भी नहीं था । मैसेग में लिखा था "Hii" अरविंद ने भी जवाब में लिख दिया "Hii shreya, how are you?" । अरविंद के how are you के जवाब में श्रेया अरविंद से पूछती है : अरविंद, यार कहाँ है तू आजकल? । अरविंद श्रेया के इस मैसेग को ऊपर से ही देखकर फ़ोन को किनारे सरका

अनंत की ओर.........

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जब - जब नाना जी का ज़िक्र आता है, तब - तब मन पीछे की ओर चल पडता है। और चलते- चलते उसी 19 अप्रैल, 1998 की उसी धुन्धली तारीख पर पहुँच जाता है, जब नाना जी हम सब से दूर, एक अंतहीन सफ़र पर चले गए थे। ज़ेहन पर जमी धूल को थोड़ा और साफ करुँ तो आँखों के आगे एक तस्वीर उभरती है, जिसमें अप्रैल की एक गनगुनी गर्मी वाली एक सुबह, मैं खुद को एक काली बुलेट मोटरसाइकिल की टंकी पर बैठा हुआ पाता हूँ। हाथ में बुलेट की चाभी है जिसको लेकर मैं उसकी टंकी पर कुछ उकेरने की जद्दोजहद कर रहा हूँ, जैसा की 2 साल के बच्चे अमूमन करते हैं।  मेरे बाएँ हाथ की ओर एक शख्स भी है जो अपने हाथों से मुझे थामे हुए है ताकी मैं गिर ना पडूँ। कुछ देर बाद वहीं बगल में खड़ा शख्स अचानक मुझे गोद में उठा लेता है और कहने लगता है - 'बाबू नाना जी को चाभी दे दो।' इससे पहले मैं कुछ समझ पता चाभी मेरे हाथों से ली जा चुकी थी। नाना जी ने मेरे तरफ देखते हुए बाय का इशारा किया। वह सज्जन जो मुझे गोद में लिए हुए थे, उनकी आवाज़ कान में पड़ी- 'नाना जी को बाय कर दो'। इससे पहले की मैं उन्हें बाय कर पाता, नाना जी मोटरसाइकिल स्टार्ट करके

प्रेम प्रपंच

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आज हम बात करने वाले उत्तर प्रदेश के छोटे से लेकर बड़े शहरों , गांवों में पनपने वाली प्रेम कथाओं के बारे में । यहाँ पर प्यार भी रूस के समाज की तरह तीन हिस्सों में बंटा हुआ है । लड़के यहां प्रेम की शिक्षा अधिकतर हाईस्कूल के दिनों से प्राप्त करते है ।। इस मामले में उन लोगों को विशेष आरक्षण मिला हुआ है जिनके बड़े भाई की शादी हो चुकी है और उनके साली भी है , प्यार के क्षेत्र में साली को वरीयता दी जाती है ।। बाकी अन्य प्यार तलाशने के दो तरीके आपका कालेज या कोचिंग हो सकता है या भोलेनाथ की कृपा हो तो आपको आपके मोहल्ले में ही यह सुख प्राप्त हो सकता है जो सामान्यतः होता नही है ।        आइये अब तीनों प्रकार के प्रेम के प्रारंभ और आगे की कथा के बारे में चर्चा कर लेते है । तो सबसे पहले नंबर आता है आपके रिश्तेदारी ( अधिकतर साली से ) में होने वाले प्रेम की । इस प्रेम का प्रारम्भ बड़े भाई के रिश्ता तय होते ही हो जाता है जिसमे जब तिलक तथा शादी आदि की रस्मे निभाई जा रही होती है तब इधर इन दो दिमागों अलग खिचड़ी पक रही होती है इसमें सहयोग देती है शादी की कुछ रस्मे । उसके पश्चात घरवालों के मजाक निश्चित ही उनको

मन की बकैती वाया कबीर सिंह

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विगत कई दिनों से मन के भीतर का बेताल, कबीर सिंह देखने के लिए मचल रहा था। तो अपने भीतर के बेताल को शांत करने के लिए उसे पिक्चर का अवलोकन कराना ही पड़ा। खैर, पिक्चर देखने के बाद जैसे ही भीतर का बेताल शांत हुआ, वैसे ही अन्दर का बिक्रम ऐक्टिव हुआ और कहने लगा- बऊआ, पिच्चर तो ताड़ आए, अब कुछ लिख भी लेओ इसपे!" फिर जब कुछ इष्ट- मित्रों ने भी ललकारा, तो बात ईगो पर आ गई। तो खोला मोबाइल का नोट पैड और टचस्क्रीन पर छई - छप्पा -छई करने लगा। हालाँकि जब लिखने बैठा तो दिमाग थोड़ा नीलबटे- सन्नाटा वाली स्थिति में था, समझ नहीं आ रहा था क्या लिखा जाए? तो थोड़ा फ़ेसबुकियाना शुरु किया। फ़ेसबुक पर हवखोरी करते हुए देखा यहाँ तो जबर वाला बवाल कटा हुआ है। डेढ़- डेढ़ किलोमीटर लम्बी पोस्टें और वीडियो दिखीं, जो या तो कबीर सिंह के ज़िंदाबाद में थी या मुरर्दाबाद में। नई बात इनमें से कोई नहीं कह रहा था। लिखने वाला अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और नज़रिए के हिसाब से पिक्चर की कमी-खूबी गिनाने में लगा हुआ था। एक ओर जहाँ मेरे कुछ मित्र पिक्चर को मर्द जाती के आत्म- सम्मान से जोडते दिख रहे थे तो वहीं दूसरी ओर कुछ प्