बेताल छब्बीसी (सोनपापड़ी विशेषांक)

 



बेताल ने अभी कूदकर विक्रम की पीठ पर अपने पैर जमाए ही थे की  विक्रम ने सेनिटाइज़र की बोतल उसके नाक के ठीक आगे लाकर टिका दी। सेनिटाइज़र की बोतल देख अनुराग से भरा बेताल ताव खा गया। भौहें सिकोड़ते हुए बोला- अब तुम भी? 


विक्रम- हम भी मतलब? हाथ पर सेनिटाइज़र मलने के लिए ही तो कहें हैं? तुम तो ऐसे बऊरा रहे हो जैसे पता नहीं क्या कह दिए हों!


बेताल- अरे मतलब अब हमसे सेनिटाइज़र घिसवाओगे? यार कुछ दिन तुमसे लॉकडाउन में क्या नहीं मिले, तुम्हरा तो माथे फिर गवा है!


(अपने अन्तर्मन में कुछ रहस्यमयी शब्दों का उच्चारण करते हुए बेताल आखिर में चुल्लू भर सेनिटाइज़र हथेली में भरकर घिसने लगता है)


विक्रम- (अपना मास्क नाक के ऊपर करते हुए) गनीमत करो की अभी हाथ पर भी घिसवा रहे हैं, नही तो अगर हमरा बस चले तो तुम्हरे ऊपर पूरा बाल्टा उलट दें!


बेताल- भक्क बे! खैर छोड़ो। और बताओ दिवाली कैसी गुजरी। पड़ाका तो भडकाए नहीं होगे। बड़का कानूनची जो हो। 


विक्रम- अरे ऐसा कुछ नहीं पड़ाका बजाना ही चाहें तो कौन रोक लेगा? 




बेताल- सरकार तो तुम ही लोग की है! तुम्हरा वैसे भी कोई क्या उखाड लेगा? खैर छोड़ो और बताओ अम्मा का बनाए रहीं दिवाली पे?


विक्रम- गुजिया, बर्फी, कचौडी, इसके अलावा 2-3 आईटम और था। 


बेताल- बडे चंट हो यार! खाली हाथ हिलाते हुए आ गए। यह नहीं की कुछ लेते चलें!


विक्रम- हाँ, तुम बडका खातिर करके निहाल कर दिए। नाश्ता तो दूर एक गिलास पनियो नहीं पूछे। ई नहीं की इतना दूर तुमको पीठ पर ढो कर ले जा रहे हैं, कुछ पूछ लें। बड़का आए हमको लपेटने वाले।


बेताल- अच्छा चलो वापस मुड़ो। ज़्यादा दूर आये नहीं हैं हमलोग। चलो कुछ खिलाते हैं।


विक्रम- वाह, यह सहसा तुम्हें निर्वाण कैसे प्राप्त हो गया धनुर्धर? वैसे क्या खिलाओगे?


(आहार का नाम सुनते ही विक्रम तेज़ी से यू-टर्न लेकर बेताल के घर की ओर मुड़ जाता है)


बेताल- बचा तो कुछ खास है नहीं, लेकिन लड्डू सोनपापड़ी होगा ही घर पे।


(यह वाक्य सुनते ही विक्रम के चहरे के भाव बदल जाते हैं और बिना कुछ कहे विक्रम एक और यू-टर्न लेकर फिर से अपने पुराने मार्ग की ओर चल देता है)


बेताल- अरे क्या हुआ भाई? काहें चकरघिन्नी हुए जा रहे हो?


विक्रम- सोनपापड़ी से अच्छा है की हमारी खोंपड़ी ही उड़ा दो। अब इतना हील-हुज्जत के बाद भी सोनपापड़ी ही मिलेगी खाने को तो इससे अच्छा है की उपवास ही कटे।





बेताल- अब यार तुम्हारे लिए छप्पन भोग नहीं ना ला दें। जो है वहीं तो परोसेंगे! अब सोनपापड़ी भी तो मिठाई ही है।


विक्रम- हाँ, अगर सोनपापड़ी मिठाई है तो फिर हम भी आज से इस सृष्टि के रचियता हैं। एक बार को किसी और मिठाई में कोरोना घुस भी जाए, लेकिन सोनपापड़ी देख के तो कोरोना को भी दस्त लग जाए।


कभी-कभी लगता है जब प्रभु श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे थे, कोई वहाँ चोरी छुपे सोनपापड़ी खा रहा था। और वहीं से सोनपापड़ी को नश्वर होने का वरदान मिल गया।


अगर वासुदेव आज के समय में गीता का उपदेश देते तो निश्चित ही इसमें आत्मा के साथ-साथ सोनपापड़ी का भी उल्लेख करते।


बेताल- (हें, हें, हें, हें) मतलब हे पार्थ, सोनपापड़ी का ना ही निर्माण हो सकता है ना ही इसका विनाश हो सकता है। यह तो बस एक घर त्याग कर दूसरे घर में प्रवेश कर जाती है।


जो सोनपापड़ी का डब्बा अभी तुम्हारे घर में पड़ा है वह कभी किसी और की संपत्ती थी लेकिन किसकी तुम नहीं जानते! अबसे कुछ दिन बाद यह फिर किसी और की संपत्ती होगी, लेकिन किसकी तुम नहीं जानते। जिसका ना कोई अंत है, ना आदि, उसपर कैसा क्रोध पार्थ?


विक्रम- धन्य हो प्रभु! तुम्हाये ज्ञान से ही पेट भर गया हमरा...


बेताल- अरे बउआ काहें रहे हो? चलो खदेडूआ के दुकान पर चाय-समोसा हो जाए, हमारी तरफ से।


( चाय- समोसे का नाम सुनकर विक्रम की बाँछें लहलहा उठती हैं।)


विक्रम- यह भी सही है। अब खदेडूआ भी अपने यहाँ सेनिटाइज़र मास्क रखने लगा है! नहीं तो आजकल चाय-समोसा के साथ कोरोना भी मुफ्त मिल रहा है....

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