राम के नाम...

 



इस पिक्चर ने मुझे बाकी कुछ दिया हो या ना दिया हो, पर एक ऐसे प्रश्न का उत्तर अवश्य दे दिया जो मैं काफी समय से खोज रहा था। वह यह है कि जीवन में सबसे भयावह क्या होता है? 


डर! 


लेकिन कुछ और भी है तो इस सबसे भयावह से भी भयावह होता है। और वह है प्रेम का भय। 


आप सोच रहे होंगी की यह स्थिति इसलिए भयावह होती है कि यहाँ आपको हर प्रेम भरी बोली में छल की गूँज सुनाई देने लगती है? या आशा की एक हल्की किरण से भी आपकी आँखोँ में चुभन होने लगती हैं?



जी नहीं, बल्कि इसलिए होती है क्योंकि यहाँ आपको फर्क पड़ना बंद हो चुका होता है। यहाँ संवेदनशीलता और संवेदनहीनता को अलग करने वाली अच्छी भली सीमा रेखा भी मिटकर नाम मात्र की रह जाती है। और जब दोनों के बीच कोई स्पष्ट रेखा रह नहीं जाती, तो इसका घालमेल होना निश्चित हो जाता है। फिर संवेदनशीलता के उजलेपन और संवेदनहीनता के सियाहपन से तैयार होता है, एक स्लेटी रंग।


धीरे-धीरे आपकी चेतना पूरी तरह इसी स्लेटी रन्ग में सनती चली जाती है। और फिर यहीं से आप वह बनते चले जाते हैं, जिससे आपको भय खाना चाहिए। क्योंकि इस स्लेटी रन्ग की परत इतनी मोटी होती है आपके लिए इसके परे देखना संभव नहीं हो पाता। और जब आप इसके परे देख ही नहीं पा रहे, तो इस बात की अपेक्षा करना की आप सत्य-असत्य, अपने-पराये, मित्र-शत्रु या उचित-अनुचित के बीच का सही अंतर कर लेंगे, यह बेमानी होगा। 


सच कहूँ तो 96 के राम की भी चेतना मुझे इसी स्लेटी रंग में रंगी नज़र आई। भले एक बार को उसे देखकर आपको ऐसा लगे की वह अब भी उसी जगह ठहरा हुआ है जहाँ कभी उसकी जानू उसे छोड़कर गई थी, लेकिन वास्तव में वह बहुत आगे निकल चुका है। इतना की वहाँ उसके लिए प्रेम, आशा, और अनुराग जैसे शब्दों के अर्थ उलट चुके हैं। 


उसकी आँखों का कोरापन, उसके भीतर के शून्यता से अधिक उस भय को दर्शाता है, जो उसके भीतर जानू के प्रेम से उपज रहा है। ज़रा गौर करने पर उसके आवाज़ की दूसरी तह में मौजूद कंपकपी से, आपको उसकी स्लेटी पड़ चुकी चेतना के भीतर बसे अँधियारे का इल्हाम भी बखूबी हो जाएगा।


 वहीं, जहाँ अब वह किसी आशा की नई किरण को जाने की अनुमती नहीं देना चाहता। उसके भीतर सालों से कैद भावनाएँ, पूरी तरह इसलिए बाहर आने से झिझक रही हैं कि कहीं उनकी यह रिहाई क्षणिक ना हों। क्योंकि वह भली-भांति परिचित हैं की हर व्यक्ति का महत्व सिर्फ तब तक ही होता है, जब तक उसका कोई विकल्प नहीं मिल जाता। 


सारी बातों का लब्बोलुआब यह है कि राम वह नहीं जो आपकी सरसरी निगाहें देख रहीं हैं। बल्कि वह है, जो वह नहीं देख पा रही हैं। 

इसलिए अगर आपको यह फिल्म देखते हुए राम कहीं तनिक भी दोषी लगे, तो उसे यह समझकर माफ करिएगा कि दोषी असल में वह नहीं बल्कि उसके भीतर का वह स्लेटी रंग है। 


मेरी राय यह है की आपको यह फिल्म अवश्य देखनी चाहिए अगर आपके लिए प्रेम और अनुराग जैसे शब्द अब तक भय का पर्याय नहीं हैंं। और अगर अब आप भी राम की ही तरह स्लेटी मिज़ाज के हो चुके हैं, तब भी आपको एक बार तो देख ही लेनी चहिए। ताकि आप खुद के प्रतिबिंब को आईने में निहार सकें! 

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