मारा- मारी (भाग -2)

हाँ तो मेरे प्रिय बकैतों, अब अपनी आँख खोलकर सुनो,

रक्टू भाई अपने 'होते - होते रह गए' ससुराल वालों के हाथों चल रही आवभगत के कार्यक्रम से जैसे - तैसे जान छुड़ाकर भागे । सालों ने भी अपने 'सो - कॉल्ड़ जीजा जी' को ज़्यादा चोटियाना (दौड़ाना) मुनासिब नहीं समझा, इसलिए थोड़ी सी दौड़ और 'धर ससुरा के' का घोष करके के, वो भी लम्बे हो लिए । इनके जाते ही श्रोतागण भी आपस में बातें कचरते हुए तितर- बितर हो गए । थोड़ी देर स्प्रिंट लगाने के बाद रक्टू भईया को एक रिक्शा दिखाई पड़ा। ऑटो रिक्शा वाला अपने हैंडल के पास बने एक छोटे से बक्से नुमा चीज़ में से 10, 20, 50 और 100 के नोट निकालकर उनको सीधा कर, एक गड्डी में सहेजने का यत्न कर रहा था । बक्सा, जिसके उपर 'खुराक पेटिका' सफेद पेंट से पुता हुआ था । पास पहुँचकर रक्टू ने पूछा
"अरे भाई, मुट्ठीगंज चलो गे ?" ।
"डेढ़ सौ दोगे तो काहें नई चलेंगे" रिक्शा वाला पासा फेंकने के अंदाज में बोला।
डेढ़ सौ सुनकर रक्टू भन्ना गया गया और चिढ़ते हुए बोला "का डेढ़ सौ ?अबे मुट्ठीगंज जाना है, मार्स पे नहीं । साला कुल 3-4 किलोमिटर ज़्यादा है नाही यहाँ से मुट्ठीगंज चौराहा ।"
रिक्शा वाला अपने पैसे गिनने में मगन रहा, अपनी बात का कोई असर ना होता देख रक्टू फिर बोला
"अरे यार ! गजबे आदमी हो, हम सैकड़ो बार गए हैं यहाँ से। साला कभी 40 के उपर दिए ही नही हैं स्पैशल वाले में।"
रिक्शा वाले ने अंत में झल्लाकर कहा -" देखो भाई अईसा है । अगर पंचायत बतियाना है ना, तो कचहरी में जाओ, हमारा सर ना खाओ" ।
रक्टू ने सीज़फ़ायर करते हुए प्रस्ताव रखा - "अच्छा, चलो 100 ले लेना, अब ठीक है ना ?" ।
उधर से जवाब आया "नही डेढ़ सौ से एक कम नहीं" ।
रक्टू ने पुनः प्रस्ताव चर्चा के पटल पर रखते हुए कहा "अरे यार चलो ना मेरी ना तुम्हारी 120 ले लो।" ऑटो वाले ने प्रस्ताव के अनुमोदन मे सर हिलाया और दोनो मुट्ठीगंज की ओर चल पड़े।

मुट्ठीगंज चौराहे से बाएँ चलकर थोड़ी ही दूर पर एक गली में रक्टू का घर था । घर की बनावट और आकार, घर के पुश्तैनी होने के दावे को बल दे रहा था । अपनी बनावट के कारण रक्टू का घर मोहल्ले के बाकी घरों के मुकाबले ज़्यादा ज़मीन घेरे हुए था । घर को रक्टू के पिताजी के शब्दों में बयां करुँ, यह घर नहीं उनका गरीबखाना था । इस गरीबखाने में रक्टू के अलावा उनके माता, पिता और उम्र में छोटे, एक भाई रहते थे । पिताजी हार्डवेयर की दुकान चलाते थे और माताजी घर पर बेलना - चौका । इनके अलावा रक्टू के एक छोटे भाई भी थे जो इनसे उम्र में 4 साल छोटे थे पर कद में 4 इंच लम्बे । करने के नाम इनके पास एक ही काम था और वह था हांकना, स्कूल - कोचिंग में गप्पे और घर - द्वार से बंदर, बिल्ली, कुत्ते और भिखारी । घर के चारों सदस्यों आमतौर पर एक दुसरे से ज़्यादा मायने - मतलब नहीं रखते थे ।

बहरहाल उस दिन सभी के स्वभाव में कोई बड़ा परिवर्तन लाने के लिए किसी दैवीय चमत्कार की आवश्यक्ता थी और चमत्कार एक दिन में बार - बार होते नहीं । अपितु एक चमत्कार शाम को ही घट चुका था रक्टू भईया के साथ, पार्क में जब उनकी लैला के मायके वाले अचानक उनका 'हाल - चाल पूछने' आ धमके । बलखाती चाल के साथ रक्टू बगैर दाएँ- बाएँ देखे, सीधे ऊपरी मंजिल पर स्थित अपने कमरे में घुसकर दुबक गए । उनके गुदा भाग का रोम - रोम प्रज्जवलित हो उठा था, इतना के रिक्शा में बैठकर पार्क से घर तक के सफर में उनके सकल कर्म पूरे हो चूके थे । कमरे में घुसते ही दरवाजा बन्द किया और बिस्तर पर गिर गए । सुताई के बाद पस्त होकर बिस्तर पर पड़े रक्टू को उनकी माता जी ने आवाज़ दी

अम्मा - "ऐ रक्टोटोटो ! रक्टो। "

रक्टू ने अपने कमरे के दक्षिणी कोने पर आंगन की ओर खुलने वाली खिड़की से अपनी घेंट (गर्दन) निकालते हुए उत्तर दिया - "हाँ अम्मा,का है?"।

अम्मा- ऐ लल्ला ! खाना खाए लेओ, परोसा गया है खाना ।" रक्टू की अम्मा ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा ।

रक्टू - "नाही अम्मा हमको भूख नहीं है, सिविल लाइन्स गए हुए थे राहुल के साथ । वहीं कुछ खा लिए थे, इसलिए पेट भरा हुआ है ।" आउर अम्मा एक ठो काम और कर देओ की बाबू के हाथे थोडा बरफ भेजवा देओ।"

अम्मा - अरे मुँहझौंसा ! अब कहां मार करके आया है ? । आए देओ तुम्हरे बाबू जी को । केतना बेर समझाय रहे, मार कुटाई में ना पड़ा करो । देखें तो कितना लगा है, आते हयन ऊपर ।

रक्टू - नही अम्मा । ई सब लंठई का काम बहुत दिन हो गया छोड़े । बरफ तो पानी में डालके नहाए के लिए मंगाए हैं, बहुत पसीना हुआ है ।

अम्मा - हमसे झूठ ना बोलो । अभी ऊपरे आते है। हमको.......

रक्टू - अरे अम्मा कह रहे हैं ना, मतलब के दादा भरोसा नाम का कौनौ चीजे नही है ई घरवा मे ।

अम्मा - अरे हाँ हाँ! ठीक है । करो जौन तुम्हारे मन में आए । आज के बाद मरो चाहे उखड़ पडो, हमसे कौउनो मतलब नही ।

रक्टू - अरे बरफवा भेजो यार ! नहाना है हमको, कबसे खडे हैं अईसे हीं ।

अम्मा - अरे भेज रहे हैं, भेज रहे हैं । थोडा ठंडा रहो....
नहाओ और थोडा अपने कपार में भर लो !

रक्टू - अरे पैर पड़ते हैं तुम्हरे, बक्श दो हमको
ससुरा कहाँ से कहाँ तुमसे बरफ माँग दिए ।

अपनी अम्मा से वाद - विवाद प्रतियोगिता जीतने के बाद रक्टू निर्वस्त्र होकर अपने पुष्ठ भाग का सघन रुप से निरिक्षण करने लगे, जो सूजकर अपने वास्तविक आकार से लगभग डेढ़ गुना बड़ा हो चुका था । पहले तो एक कुर्सी पर बर्फ बिखेरी और बिखरी हई बर्फ पर बैठकर आराम पाने का असफल प्रयास किया, पर जब इसमें विफल हो गए तो अपने बेड़ पर एक प्लास्टिक की एक पन्नी बिछाई और उसपर बर्फ बिखेरकर अपना पलंग कुछ इस तरह लेट गए की उनका गुदा भाग बर्फ के ऊपर आ जाए । पहले 2-3 मिनट तो ऐसा महसूस हुआ की मानो सैकड़ो मधुमक्खीयाँ ने आक्रमण कर दिया हो पर जब धीरे - धीरे आराम पहुंचा तो सोचा अपनी व्यथा अपने मित्रगणों को सुनाई जाए । बहुत खोजने पर फ़ोन ना पाकर जब दिमाग पर ज़ोर ड़ाला तो स्मरण हुआ की "साला फ़ोनवा तो लगता है कुटाई - कुटाई खेलते हुए पार्क में ही गिर गया और तो और करमजली बाइक भी वहीं खड़ी रह गई । भगवान करे उन कसाईयों की नज़र ना पड़ी हो बाइक पर, नहीं तो उसको भी फूंक देंगे निगोडे " इसी तरह खुद ही से शास्त्रार्थ करते - करते रक्टू को पता नहीं कब नींद आ गई । इस कांड के 2-3 दिन तक महाराज सदमे में रहे और घर में ही दुबके रहे । फिर जब रक्टू के 'मानसिक पुनर्वास योजना' का प्रथम चरण पूरा हुआ तो सहसा श्रेया का ध्यान आया और उसकी आपबीती का ख्याल करके सिहर गए । सोचा चलो यार मैं तौ जैसे - तैसे करके वहाँ से भाग आया । पर उसका क्या ? उसे तो उन्हीं लकड़बग्घों के साथ रहना है ? इसके बाद श्रेया से सम्पर्क करने के कई जतन हुए पर सारे जतन पानी में बह गए ।

फिर एक दिन फ़ोन की स्क्रीन पर हाथ फेरते हुए रक्टू भाई की नज़र श्याम बिहारी के नम्बर पर पड़ी। श्याम बिहारी और रक्टू की केमेस्ट्री एक ज़माने में विक्रम - बेताल वाली थी, पर जबसे श्याम बिहारी ने बम्बई का रुख किया, तबसे दोनों की दोस्ती एक दुसरे को फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम के मीम में टैग करने भर तक सिमट गई थी । इन्हीं बातों को सोचते - सोचते पता नही कब रक्टू ने श्याम बिहारी को फ़ोन लगा दिया और पलक झपकते भर में श्याम बिहारी ने फ़ोन उठाकर अपने अपने चित - परिचित अंदाज़ में बोला -

अउर बताओ धनुर्धर ? गलती से हमरा नम्बर लग गवा का ?

रक्टू - अरे नाही गुरु, बस अईसे सोचे तुम्हारा ठौर - ठिकाना पता किया जाए । अउर सुनाओ महाबली ? बम्बई में मन लग रहा है की नही ?

श्याम बिहारी - आरे नही यार, बम्बई तो बम्बईए है । जो मन ना लगे तो किसी ना किसी बहाने से लगाए रखती है । वो तो अपना गाना - बजाना और मारा- मारी है जो दिल बहलाए रखती है, बाकी तो साला हईए का इहाँ।

रक्टू - तो बांधो अपना बोरिया - बिस्तर और कूच कर दो प्रयागराज के लिए । कहें बऊराए फिर रहे हो एतना ?

श्याम बिहारी - अरे भक ! ऊहवां काऊन सा कुबेर का खजाना धरा है । कम से कम इज्जत से बम्बई में 2 टाईम की रोती पल्ले पड़ जात है । नहीं तो ससुरा इलाहाबाद में वईसे भी हम हर जगह से दूर- दूराए फिरते थे । सब हमरे बाबू जी औउर चाचा के मेहरबानी से, उनको तो हम फूटी आँख नाही सुहाते हयन । अरे हम तो कह रहे हैं तुम भी कभी बंबई तशरीफ धरो !

रक्टू - अबे तशरीफ की बात ना करो बे ! साला बंबई का अब तो कमोड पे धरने लायक भी नहीं बचा है ।

श्याम बिहारी - काहें बे ? अबकी कऊन पेल गया तुमको ?

रक्टू - अरेरेरेरे पूछो मत यर ! श्रेया के बारे में तुमको बताए ही थे

श्याम बिहारी - हाँ फिर ?

रक्टू - फिर का । बस गए हुए थे उसी से मिलने अज़ाद जी वाले पर्कवा में । बस वहीं साले उसकी अम्मा और उसके भाई सब आ गए और हमको धर के तबियत से पेल दिए ।

श्याम बिहारी - अच्छा फिर ?

रक्टू - अबे फिर का । जईसे- तईसे जान छुड़ाकर भागे वहां से ।

श्याम बिहारी - अबे राहुला सब को काहें नहीं बुलाए ?

रक्टू - अबे तो वहां से अपना प्राण बचाते या की उनको फ़ोन करते ?

श्याम बिहारी - अरे अब कऊन का दुनिया खतम हो गया है ? किसी दिन मौका देख के तुम सब मिलके धर लो सालों को झूंसी
के आस - पास उनको !

रक्टू - अरे अब जो हो गया सो हो गया । बात बढ़ाने का कोई तुक है नहीं अब।

श्याम बिहारी - तो आजकल का रहे हो ?

रक्टू - कुछ खास नही ! बस पुराना ही वाला हिसाब - किताब है।

श्याम बिहारी - तो ऊहां रह कर जिन्दगी में का उखाड़ रहे हौ ?
इससे बढ़िया है यहीं आ जाओ ।

रक्टू - देखो यार ये सब बंबई - दिल्ली हमरे बस का नही है । हम यहीं ठीक हैं।

श्याम बिहारी - अरे फिर वहीं क्रेक जईसे बात कर रहे हो । हम कऊन सा तडी- पार होने के लिए कह रहे हैं। पहले थोड़े दिन लिए के आओ थोडा घूमो - फिरो, थोडा मारा- मारी का मौज लो । फिर कोई फैसला करना आराम से ।

रक्टू - चलो देखते हैं। ठीक है चलो बात होती है फिर ।

श्याम बिहारी - चलो ठीक है ध्यान रक्खो अपना ।

रक्टू - ठीक है ।

(फ़ोन काटता है )

श्याम बिहारी की सलाह रक्टू के दिमाग में कुछ ऐसे फंस गई जैसे 6 नम्बर के जूते में 9 नम्बर का पैर । फिर बहुत सोच विचार करके बम्बई जाने का फैसला लिया, सोचा अब घर - द्वार त्याग कर खानाबदोश बनने में ही भलाई है । शायद इसी बहाने घर के लोग उनको थोड़ा गंभीरता से लेंगे । शुरु में घर वालों ने थोडा 'क्यों - क्या' ज़रूर मचाया पर बाद में सोचा शायद बंबई का जीवन देखकर शायद इनके ज्ञान के कपाट खुल जाएँ। बस फिर बंबई जाने के लिए तैयारियाँ पूरे हो - हल्ले के साथ शुरु हुईं । एक बार रक्टू को फिर श्रेया से मिलने का ख्याल ज़रूर आया पर तब तक वह ज़ाकिर खान को अपना आराध्य मानकर सख्त लौंडा बनने की प्रतिज्ञा ले चुका था । फिर जाने का दिन भी आ गया , माता - पिता के चरण स्पर्श करके, अपना समान उठाए और इलाहाबाद जंक्शन के लिए प्रस्थान कर गए । घर से विरासत के तौर पर रास्ते के लिए पूड़ी, आलू की भुजिया सब्ज़ी और आम के आचार के अलावा सिर्फ 8,000 रुपय लेकर चले थे । प्लेटफॉर्म पर दादर - गोरखपुर एक्सप्रेस आकर लगी और अपनी सीट पर सामान जमाकर खिड़की वाली सीट पर रुआंसी शकल लिए बैठ गए। सोचा




"छोड़ो साला बम्बई - वम्बई, वापस घर ही चलते हैं ।"
फिर अगले ही क्षण सोचा "चलो यर हो ही आएं एक बार बंबई, देखें तो सही की दादा कऊन सा बडका टोप है बंबई ? मन लग गया तो ठीक और जो नहीं लगा तो कुछ अऊर देखा जाएगा। इसी बहाने बकैती के लिए कुछ मटेरियल भी इकट्ठा हो जाएगा और लगे हाथ मारा- मारी भी चख लिया जाएगा। मारा- मारी ! अरे दादा, मारा- मारी तो भूला ही गया था । अऊर तो अऊर, जो मारा- मारी चख लिए, तो साला अपना भौकाल भी यहाँ की मंडली में और टाइट हो जाएगा"। इन्हीं सब बातों में रक्टू भाई को ज़रा भी आभास नहीं हुआ की ट्रेन ने कब चहलकदमी शुरु दी। जब दिवास्वप्नलोक से मृत्युलोक में वापसी हई तो ट्रेन इलाहाबाद जंक्शन के आउटर की देहलीज़ पार करने के कगार पर थी । फिर धीरे - धीरे ट्रेन की बढ़ती गती के साथ इलाहाबाद तेज़ी से ओझल हो गया ।

अपने होल्डाल पर बैठे रक्टू भईया इन्हीं सब बातों को सोचकर फिर थोड़े रुआंसे से हो गए । अपने नयनन के नीर छुपाने के लिए आपनी गर्दन इधर - उधर उचका कर, ऊपर की तरफ लगे विज्ञापनों  को देखने लगे। तभी फ़ोन बज उठा, फ़ोन की स्क्रीन पर 'श्यामसुंदर का छछूंदर' नाम फ्लैश होने लगा । रक्टू के फ़ोन उठाते ही दुसरी तरफ से आवाज़ आई - कहाँ हो बे ? कहीं गाड़ी- वाड़ी से कचरा तो नहीं गए ?

रक्टू - अबे हमारी छोड़ो बे! पिछला पौना घंटा से तुमहारा 10 मिनट पुरा होने का इंतजार कर रहे हैं। अबे इस जनम में आ जाओगे के नही ???

श्याम बिहारी - अरे लल्ला ! बस स्टेशन से 10 कदम दूर रह गए हैं ।

रक्टू - अबे पहुँचो जल्दी ।

श्याम बिहारी - अरे भाई हम स्टेशन में अंदर आ चूके हैं, तुम कहां पर हो ?

रक्टू - अरे हम गेट नम्बर 2 के पास हैं !

श्याम बिहारी - हम भी वहीं हैं बे , तुम दिख काहें नही रहे हो ?

रक्टू - अरे वो कैटरीना कैफ का स्लाइस वाला पोस्टर देखो ! बडका वाला । उसी के नीचे हैं हम ।

श्याम बिहारी - अबे कहाँ गुरु ? हमको तो कैटरीना कैफ़ नहीं दिख रही ! कहां घुसे हुए हो ?

रक्टू - अबे एक मिनट, एक मिनट । तुमको देख लिए हम। अपने बाएँ तरफ देखो !

श्याम बिहारी - (गर्दन घुमाते हुए) उम्म्म्म्मम्म ! कहां यार ?
अरे हाँ, दिख गए, दिख गए ।

रक्टू - आ जाओ ! आ जाओ

फिर दोनो भूतपूर्व विक्रम - बेताल की जोड़ी का एक लघु भरत -मिलाप टाइप का सीन होता है और फिर दोनो अतृप्त आत्माएं अपने अगले सफर पर निकल पड़ती है । दरअसल 'श्यामसुंदर का छछूंदर' और कोई नहीं श्याम बिहारी ही हैं । इस उपनाम का श्यामसुंदर वाला हिस्सा इन्होनें अपने पेशे से बैंक कैशियर पिता से प्राप्त किया है, जो की उनका का नाम भी है और जहाँ तक बात है छछूंदर वाले हिस्से की, तो यह इनका अपना कमाया हुआ है ।

नाम के अनुरूप ही श्याम बिहारी प्रेम रस के बहुत बड़े रसिक है । एक बार सरस्वती घाट पर खुद से 2 क्लास जूनियर लक्ष्मी के साथ, प्रेम रस का सेवन करते साक्षात अपने चाचा जी द्वारा धरे गए थे । इस कांड के कुछ दिनों बाद बात आई - गई हो गई और सब कुछ अपने पुराने ढर्रे पर लुढकने लगा। सब कुछ एकदम मस्त - मौला चल रहा था, तभी एक दिन ग्रहों की दशा बदली और इनकी कुंडली में चल रहा गजकेसरी योग अचानक शनि के साढ़ेसाती वाले योग में बदल गया । एक रात हवाखोरी करके घर पहुँचे,  मगर इनसे पहले घर पर कुछ और पहुँच चुका था । वह 'कुछ और' था इनकी बीएससी की मार्कशीट, जो इनके हालिया उपलब्धियों की चुगली कर रही थी । हुआ वहीं जो अमूमन ऐसे मौकों पर होता है, पिताजी ने पुरस्कार स्वरूप पहले तो चप्पल से इनके शरीर पर जमी धूल जमकर उड़ाई और फिर बहती गंगा में चाचा, बड़े भाई और माता जी ने भी हाथ धोया । श्याम बिहारी को लगा की तूफानी हवाएँ गुज़र चुकी हैं, पर अब तूफानी हवाओं के बाद कड़कती बरसात की बारी थी । एक दिन अचानक पिताजी ने धरती का बोझ, खानदान का कलंक और दुश्मन अनाज का जैसे आरोपों में दोषी करार देते हुए श्याम बिहारी को अपना झोरा - झंटा समेट कर बंबई कूच करने की सज़ा सुनाई, जहाँ उनको अपने पिता जी के मित्र द्विवेदी जी के मेडिकल कॉलेज में बतौर क्लर्क नौकरी करनी थी । इंटर तक श्याम बिहारी पढाकू किस्म के बालक थे, इसलिए पिता पर भी उनको कलेक्टर बनाने की धुन सवार थी । मगर श्यामसुंदर जी ने भी उनको कलेक्टर बना कर ही दम लिया, हाँ यह बात अलग है की उनके खानदान के चिराग भले ही कॉलेज के फीस काउंटर पर बैठकर फीस कलेक्ट कर रहो हों मगर कुछ ना कुछ तो कलेक्ट कर ही रहे थे, ऐसे में मेरी समझ से उनको कलेक्टर कहने में कोई हर्ज़़ नहीं होना चहिए ।

तभी से द्विवेदी जी के यहां श्यामबिहारी काला - पानी भोग रहे थे । हालांकि द्विवेदी जी ने श्याम बिहारी को रहने के लिए एक 10 × 10 का कमरा दे दिया और कॉलेज के मेस में खाना - नाश्ता मुफ्त करवा दिया था । साथ - साथ पढ़ाई - लिखाई के लिए हफ्ते में 2 दिन की छुट्टी भी दे रखी थी । शुरु में श्याम बिहारी रह - रहकर उकता जाते थे पर धीरे - धीरे जब उनकी मित्रता देवरिया के पाठक जी और बघेल जी से हई तो मन बंबई में रमने लग गया । खासकर श्याम बिहारी को शनिवार का इंतज़ार पूरी बेसब्री से रहता, जब हर शनिवार को नियमित रुप से द्विवेदी जी के घर कीर्तन मंडली का जमावड़ा होता था । चूँकि द्विवेदी जी भी मिट्टी से जुड़े व्यक्ति थे इसलिए कीर्तन की शुरुआत खुद करते थे और श्याम बिहारी भी कीर्तन कला में निपुण थे, इसलिए द्विवेदी जी के आँख का तारा बनने में ज़्यादा देर ना लगी ।

बातें करते - करते उद्धव और भान की जोड़ी अपने गंतव्य पर पहुँची । हॉस्टल के सबसे ऊपरी मंजिल पर श्याम बिहारी का कमरा था । इसके अलावा उस मंजिल पर एक जिम था और कुछ अन्य कमरे थे जिनमें कॉलेज में काम करने वाले कर्मचारी रहते थे । श्याम बिहारी के बगल के कमरे में पाठक जी और बघेल जी रहा करते थे । सामना होने पर श्याम बिहारी ने पाठक जी और बघेल जी से रक्टू का राब्ता करवाया । सामान पटकते ही फिर से मारी - मारी का ज़िक्र छेड़ते हुए रक्टू बोला - "चलो गुरु फिर अब हो जाए एक - एक ठो मारा - मारी ?"

श्याम बिहारी - अब्बे ?

रक्टू - अऊर का ?

श्याम बिहारी - अरे नाही यार ! अभी थोड़ा सुस्ताओ । सबेरे चलते हैं।

रक्टू - अरे पर अभी काहें नही ? तुम तो कहे थे पास ही में है अड्डा ।

श्याम बिहारी - अरे है पास ही में । पर थोड़ा समझो, कल चलेंगे सुबह ।

रक्टू - धत्त तोरी के । तुम यार मतलब के एक्साइटमेंट का गुब्बारा फूलने से पहले ही भड़का दिए । चलो ठीक है सुबह का वेट कर लेटे हैं। पर सवेरे कोई लकड़ा ना लगा देना !

श्याम बिहारी की आवाज़ सुनकर रक्टू बुझ गया । फिर जैसे - तैसे खाना - खाकर बिस्तर पर लेटा। पर नींद भी कबड्डी खेलने के मूड में थी, जितना छूने की कोशिश करो, उतनी तेज़ी से भाग कर दूर निकल जाए । रक्टू मारा- मारी को लेकर तमाम ख्याल अपने ज़ेहन में बुनता रहा की आखिर यह ससुरी मारा - मारी हो क्या सकती है ? हो सकता है नए तरीके के खोए की मिठाई हो ? या शायद बेसन या सूजी के हलवे से मिलता - जुलता कुछ हो ? होने को तो यह भी हो सकता है कई दिनों तक खौला - खौला कर एकदम गाढ़ी की गई दूध से तैयार हुआ कोई पकवान हो जिसको मुँह में भरते ही आदमी सीधे स्वर्ग लोक में पहुँच जाए या फिर कोई देसी और विदेसी मिठाई को मिलाकर तैयार किया गया कोई नया पकवान । कहीं ऐसा ना हो की वह किसी और ही जानवर के दूध से तैयार मिठाई हो? क्या पता कुछ भी हो सकता है ?

इसके बाद सीधे रक्टू को अपने अस्तित्व का भान तब हुआ जब थोड़ा उजाला उसके चेहरे पर पड़ा। घड़ी में देखा तो 6:15 का वक़्त हो रहा था, बाहर अभी कोई - खास हलचल नहीं थी । मानो पंच महाभूत भी रक्टू से कह रहे हों - "सो जाओ मुन्ना, सो जाओ । इतना ताव में ना आओ।" रक्टू ने सोने की भरपूर कोशिश की पर दिमाग पर मारा- मारी ने कब्जा कर रखा था । फिर उठकर प्रातः कल की नित्यकर्म संपन्न किए और स्टोव पर पानी गर्म होने के लिए चढ़ा दिया । फिर धीरे - धीरे गुनगुना पानी सुड़कने लगा ताकि भूख और कस कर लगे । समय का इतना गला रेंतने के बाद भी घड़ी अभी 6:15 से सिर्फ 8:00 तक ही पहुँची थी । रक्टू से रहा नहीं गया, उसने श्याम बिहारी को टोचना शुरु कर दिया । पहले तो श्याम बिहारी ने रक्टू की टोचन प्रक्रिया को अनदेखा करना चाहा, पर जब पानी सर से ऊपर हो गया तो थोड़ा खींझते हुए बोला - " अरे सोने देओ यार ! कहें इतना बेकल (व्याकुल) हुए जा रहे हो ?

रक्टू - अरे उठो यार, आठ बज गए है।

श्याम बिहारी - अरे तो हम कौन सा कह रहे हैं की 18 बजे हैं।

रक्टू - (श्याम बिहारी को लगभग झकझोरते हुए) अबे हम यहाँ भूख से इतने चोकवासे हुए हैं ? और तम हो के......

श्याम बिहारी - (बात को काटते हुए) अच्छा ठीक है, ठीक है । ज़रा चैन से रहो । चलते हैं थोडी देर में ।

रक्टू घड़ी - घड़ी समय काटने के लिए अलग - अलग चीज़ों को करने का यत्न करने लगा, उत्साह से उसका चेहरा व्याकुल हुआ जा रहा था । उधर श्याम बिहारी के चेहरे पर बदहवासी का भाव खींचा हुआ था । वह बार - बार रक्टू के चेहरे को देखता और हर बार उसे किसी चीज़ का अपराध- बोध होता ।
दोनों तैयार हो होकर निकले अड्डे कि ओर । पूरे रास्ते रक्टू चहकते हुए श्याम बिहारी से बातें किए जा रहा था और वहीं श्याम बिहारी मारे ग्लानि के, उससे आँखें नहीं मिला पा रहा था । एक तरफ जहां रक्टू उड़ने की रफ्तार से चल रहा था, वहीं दुसरी तरफ श्याम बिहारी चाल देखकर ऐसा लगता था की मानो उसके पैरों को बेड़ियों ने जकड़ रखे हों ।
दुकान के सामने पहुँचकर श्याम बिहारी मरी हई आवाज़ में बोला - लो भाई आ गई दुकान ।

रक्टू लगभग उछलते हुए बोला - अबे यहीं है का ?

श्याम बिहारी - हाँ ।

रक्टू - (बुदबुदाते हुए) शिव सागर कैफे ।
(फिर श्याम बिहारी कि तरफ बढ़ता हुए बोलता है )
अबे गजब है बे । बित्ते भर कि दुकान और इत्ते ऊंचे पकवान ?

दोनो दुकान के अन्दर प्रवेश होते हैं । एक ठीक - ठाक कोना खोजते हैं जहाँ पंखे की हवा ज़्यादा लगे, जगह चुनकर र्सी पर बैठ जाते हैं ।

तभी एक पतला सा, साँवले रंग का एक लड़का आता है और लगभग चीखने के अंदाज में बोलता है - हा सेठ फटाफट बोलो ! क्या मांगता तुमको ?

रक्टू - भाई 2 मारा- मारी ।
( उंगली से 2 का इशारा करते हुए )

लड़का - अच्छा 2 मारा- मारी और बोलो, और बोलो ?
तुम बोलो सेठ ? तुमको ?
(श्याम बिहारी कि तरफ देखते हुए )

श्याम बिहारी गर्दन दाएँ- बाएँ हिलाकर 'नहीं' का इशारा करता है ।

लड़का चिल्लाकर काउंटर पर बैठे एक अधेड व्यक्ति से बोलता है - अन्ना ! टेबल नम्बर 7 पे 2 मारा- मारी ।

रक्टू श्याम बिहारी से मुखातिब होते हुए - अबे यर ये मारा - मारी बनाने के लिए कौनौ अंडरग्राउंड व्यवस्था है का ?

श्याम बिहारी - (नजरें चराते हुए) नहीं तो।

रक्टू - अबे तो फिर ना दूध की खुशबू, ना मावे की सुगंध, ना कुछ? खाली अगरबत्तीए का गंध तैर रहा है । हाँ ?

श्याम बिहारी - पता नहीं यार (धीमे स्वर में)

रक्टू - अब तुमको हुआ का है ?
सवेरे से देख रहे हैं की तुम्हारा बैटरी डाउन हुआ पड़ा है !
का बात है ?

श्याम बिहारी - कुछ तो नहीं ।

रक्टू - अबे बताओ ना बे हुआ का है । साला तुम्हारा चेहरा। देखकर ऐसा लगता है जैसे कई दिन पुराना कब्ज़ तुमको जकड़े हुए है........


तभी वह साँवला लड़का लाकर टेबल पर लाकर 2 कप चाय पटकता है

रक्टू - यह क्या है ?
भाई हमने चाय नहीं मंगई है, मारा- मारी मंगई है ।

लड़का - अरे ये मारा- मारीच तो है ?

रक्टू - अबे बनाओ मत । सुबह का टाईम है, बिना मतलब भरपेट लात - जूता खाओगे नाश्ते में !

लड़का - ए अलीबाग से आएला है क्या ?

(अपने सेठ को आवाज़ लगाता है )

"अरे अन्ना देखो ना इसको, फाल्तू का मच - मच कर रेला है"

(सेठ दौडता हुआ आता है)

सेठ - क्या हुआ रे कल्पेश ?

लड़का - अरे सेठ देखो ना, ये खाली - फुकट मगजमारी कर रेला है....

( लड़के की बात काटते हुए रक्टू बोलता है)

रक्टू - अरे भाई साहब मेरी बात सुनो । मैने इस्से मारा- मारी मंगाई । पर इसने लाके चाय पटक दी। अब आप ही बताईए मैं क्या करुँ??

सेठ - (रक्टू पर भड़कते हुए) अरे ए ! धंधे का टाईम है, खोटी मत कर । पड़वड़ता है तो ले, नई तो पईसा देकर फुट ले । समझा क्या ?

रक्टू - (चीखते हुए) अरे यार किसको चंपक लाल बना रहे हो । साला मारा- मारी के नाम पर चाय परोस कर ?

सेठ - ए तू पेलि बार आया इदर ?

रक्टू - हाँ । पर मुझे पता है मारा- मारी क्या हो.........

सेठ - अरे ए । सुन मारा- मारी बोलो तो चाय होता है ? समझा

रक्टू - अरे चाय - चाय होती है । मारा- मारी कैसे हो सकती है ?

सेठ - अरेरेरेरेरेरेरेरेरे ओ ढक्कन ! मारा- मारी बोले तो एक चाय होता है जिसको बनाने को आधा लोकल चाय लगता है और आधा ब्रांडेड चाय लगता है । दोनो मिक्स करते है आपस में । और एसा बनता है मारा- मारी । समझा क्या ?

सेठ की बातें सुनकर रक्टू के ऐसा लगा, जैसे किसी ने सरे बाज़ार उसकी पतलून खींच दी हो ।

रक्टू - (खुद को संभालते हुए) मतलब मारा- मारी कोई मिठाई नहीं होती ???

सेठ - अरे नई रे, अबी बताया ना तेरे को।

रक्टू - मैं तो समझ रहा था की मारा- मारी कोई मिठाई होती होगी । यहाँ मेरा दोस्त है उसने कुछ और बताया था हमको मारा - मारी के बारे में, आप उसी से पूछ लो । अरे श्याम बिहारी तुम काहे नहीं कुछ बोल रहे हो । श्या...........

अपनी बात का कोई जवाब ना पाकर रक्टू श्याम बिहारी की तरफ गर्दन घुमाकर पीछे घूमते हैं और श्याम बिहारी को उनकी जगह से अंतर्ध्यान पाते हैं।

उसके बाद रक्टू लगभग कांपते हुए बोलते हैं

भाई साहब, यह जो मेरे साथ यहाँ बैठे थे, वो कहाँ गए ???

सेठ और लड़का ठहाका लगाकर ज़ोर से हँसते हैं।


              🙏🙏🙏🙏 सेवा समाप्त 🙏🙏🙏🙏

















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