गोधन



जब मेरी ज़िन्दगी में यह वाकया पेश आया, तब मेरी उम्र गालिबन पाँच वर्ष के से थोडी कम रही होगी । अगर अपने ज़ेहन पर थोड़ा ज़ोर डालूं , तो मेरा ज़ेहन मुझे साल 2001 के जनवरी की ओर खींचता है जब मेरे ननिहाल में मेरी मौसी की शादी की तैयारी चल रही थी । हर कोई अपने हिस्से की काम और झंझट अपने - अपने सर लिए फिर रहा था । बहरहाल खरांंवाँ - खरांंवाँ शादी का दिन पास आ रहा था और इसी क्रम में शादी से पहले हमारे यहां उत्तर प्रदेश के अवध और पूर्वांचल से लेकर बिहार के कुछ क्षेत्रों में तिलक की परंपरा है, एक प्रकार की रस्म जिसमें लड़की के पक्ष द्वारा लड़के को तिलक के शगुन के तौर पर मिठाई और अन्य वस्तुएँ भेंट की जाती हैं । तिलक की विषय में मेरा ज्ञान सिर्फ इतना ही है ।


बात तिलक के दिन की है, सुबह तड़के ही घर के बाहर नाते - रिश्तेदार और गाँव के लोग दरवाज़े पर जुटने शुरु हो गए थे, चाय-नाश्ते का दौर अपने उरुज़ पर था । क्योँकि तिलक लेकर काफी दूर जाना था और दिन भी सर्दियों के थे इसलिए बड़ों के चेहरे पर हड़बड़ाहट का भाव साफ उभर रहा था । एक बहुत बड़े आकार की ट्रक घर के गेट से लग कर खडी थी, जिसमें तिलक में जाने वाले मिठाई और फल के टोकरे, टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, सोफ़ा, बेड़, किचन सेट और बहुत से सामान लादे जा रहे थे । मैं अपने सामान गिनने के काम में मगन था। तभी सहसा मेरी नज़र घर के बरांड़े से सटे एक कमरे के भीतर के दृश्य पर पड़ी, जहां एक लड़का बाएं हाथ से खाली पड़ी डिस्पोजेबल कपों में बची - खुची जूठी चाय, अपने दाएं हाथ में जकड़े हुए कप में उडेल रहा था । वह हमारे घर के ठीक सामने के घर में रहने वाला लड़का था जिसे गाँव के लोग गोधन - गोधन कहते थे, पर वास्तव में उसका नाम गोवर्धन था । पर जैसा की गाँव- देहात की अपनी रवायत होती है की, किसी की भी नाम सही- सलामत नहीं रहता और गोवर्धन भी इसका अपवाद नहीं था । गाँव में सार्वजनिक धारणा में वह 'पगलेट' था, ज़ाहिर सी बात है, जो बच्चा कुत्तों को अपने घर से बिस्किट चुरा का खिलाता था वह पगलेट कहलाने का ही हक़दार, और साहब उसका पागलपन सिर्फ इतना थोड़े ही था, वह तो चुपके से कसाई के बाड़े से मुर्गियों और बकरियों को भी भगा देता था, और तो और गाँव में किसी राह चलते हुए किसी रोते हुए बच्चे हो चुप कराने के लिए धूल- मिट्टी में लोट जाना और अपनी हंसी उडवाने वाला के अलावा अपने निश्छल हृदय के कारण किसी भी 'समझदार व्यक्ति' के बहलावे में आकर उसके काम करने के बदले धन्यवाद या अनुराग ना पाकर "पगलेट " जैसी संज्ञा पाना वाला, एक भला - चंगा इंसान कहलाने लायक तो कतई नहीं है ।


हालांकि उस उम्र में भले ही समझदारी उतनी नहीं थी, पर संवेदना ज़रूर थी । वहीं संवेदना, जिसे उम्र के साथ बढ़ती समझदारी नामक एक वस्तु ने ज़ेहन से बाहर धकेल कर मुझ पर अपना एकछत्र राज स्थापित कर लिया । मेरी वहीं स्वर्गीय हो चुकी संवेदना मुझे गोधन के पास ले गयी और मुझे अपने ठेठ बम्बाईया लहजे पूछने पर मजबूर किया "गोधन तेरेको चाय चाहिए?" एक छोटी सी अबोध मुस्कान लिए उसने हामी में अपना सर हिलाया । मैं अन्दर अपनी मम्मी के पास दौडा उनसे कहने लगा "मम्मी मुझे चाय चहिए" । मेरी माँ ने लगभग डपटते हुए कहा "क्यों चहिए ?, तुमको कितनी बार कहा है की चाय गन्दी चीज़ होती है ।" पर मैं भी मैं था, कोई भी बात जल्दी मानना फितरत से इतर तब भी थी और अब भी है, अपनी बात पर अड़ा रहा । मम्मी ने पिंड छुड़ाने के लिए "आच्छा अभी देती हूं, पहले ज़रा कपड़े समेट लेने दो" कहकर कपड़े एक अलमारी में डालने लग गईं । उन्हे लगा की थोडी देर में फितुर उतर जाएगा। मगर भैया अपनी गरारी तो इसी बात पर अड़ चुकी थी, बात को ऐसे कैसे जाने देते ? । कोई उपाय ना सूझता मैं पहुंच गया जल्लू मामा के पास, जो पीछे के आंगन में बैठे एक बडे से पतिले में आलू उबलने के लिए चढ़ा रहे थे । जल्लू, जिनका असली नाम भी जल्लू ही था, पेशे से हल्वाई थे । थे क्या अभी भी हैं, जो गाहे - बगाहे शादी, त्योहार, तीज, तेरहवीं पर याद किए जाते हैं ।


बस फिर क्या था, उनके इर्द - गिर्द घर के किसी बड़े को ना पाकर मैने अपना हनी - दा पूह वाला कप उठाकर पहुँच गया, और पूरी मासूमियत से बोला "जल्लू मामा - जल्लू मामा, मुझे भी चाय चहिए ! उन्होने चेहरे पर मुस्कुराहट भरते हुए कहा, "अरे नाही हो बाबू, अगर राऊराके हम चाय दे देहनी, ता राऊर मम्मी हमरा पे रिसीअईहन ।" मैने भी अपनी मासूमियत का लेवल थोडा और बढ़ाते हुए फिर कहा " अरे मम्मी आप पर गुस्सा नही करेंगी, मैं प्रौमिस करता हूं किसी को नहीं बताऊंगा आप प्लीज दे दीजिए।" "आच्छा, त रऊरा नहीए मानब । लेंई लगन के टाईम बा, कहें रऊरा के नाराज कईल जाओ, अईसोहूं अपनाके मालकिन के दुलरुआ हई ।" कहते हुए मेरे कप में चाय की केतली को खाली करते हुए चाय से कप को भर दिया । मैने झप्पटे से कप अपने हाथ में लेते हुए घर के बारांडे के तरफ भागा, बहुत खोजने पर भी गोधन को नहीं पाया । फिर किसी ने बताया को वह जा चुका है । मैने खुद को सांत्वना पुरस्कार देते कहा चल कोई बात नहीं कल फिर आएगा तो पिला दूंगा और मैं अपनी दुनिया में मलंग हो गया ।



उसके बाद रह - रहकर गोधन को तलाश्ता, फिर एक दिन पता लगा को गोधन की लाश गाँव के बाहर के नहर में से मिली है । उसके बाद उसके घर के बाहर लोगों का जमावड़ा और पुलिस की खड़ी वह नीली जीप बखूबी याद है । हमारे घर के बरांड़े में बैठे गाँव के चौराहे पर क्लासिक टेलर नाम की दुकान चलाने वाले हफीज़ मियाँ और हमारे घर के पास ही रहने वाले छितौनी वाले बाबा की बातों के हवाले से किस्सा बयां करुँ तो गोधन की मौत महज़ एक हादसा या अनहोनी ना होकर एक इरादतन अंजाम तक पहुंचाई वारदात भी हो सकती थी । जिसके पीछे का कारण कथित तौर पर उसी मोहल्ले के दद्दन और गोधन के पिता के बीच चल रहे पारिवारिक बैर को बताया गया । पुलिस को इत्तला तो शव मिलते ही गाँव वालों द्वारा कर दिया गया था और गोधन के दाह संस्कार के बाद भी उसके घर पुलिस का आना - जाना लगा रहा । अंततोगत्वा पूरे कोलाहल का नतीजा वहीं रहा जो आमतौर पर होता है - कुल जमा सिफ़र । फिर धीरे - धीरे सदर के पुलिस थाने में पड़ी 'गोवर्धन मिश्रा' के नाम की फ़ाईल और गाँव के जनमानस पर धूल की तहें जमती चली गयीं और बात आया राम - गया राम हो गई और सभी के साथ आखिरकार गोधन के घर वाले भी इसे हतभाग्य मानकर आगे बढ़ गए क्योंकि जब खूनी मिला ही नहीं तो खून कैसा ? इस तथाकथित दुर्घटना में और हमारे घर की शादी की तारीख़ में महज़ 2-3 दिन का ही अन्तर था, इसलिए सब कुछ आनन- फानन में बीत गया ।



उदास उस दिन भी बहुत था और अब भी हो जाता हूं गोधन को याद करके, पता नहीं क्यों ? इसका जवाब आजतक खोज रहा हूं । सोचा इस कहानी को लिखते - लिखते ही जवाब मिल जाए, पर यहां भी नाकामी ही हाथ लगी । आज भी जब चाय का प्याला हाथ में होता है तो एक बार को गर्दन दाएँ- बाएँ किसी को खोजते हुए हो जाती हैं या जब भी अपने ममहर वाले उस घर के कमरे में होता हूं, तो उस कमरे की खिड़की से नजरें सीधे गोधन के घर की तरफ घूम जाती हैं, पता नहीं किसे ढूंढते हुए ? और आखिर कोई इन्सान किसी ऐसे बच्चे को क्यों याद कर सकता है जो प्यार भरी शरारत से उसके खिलौने छूकर खिलखिलाता हुआ भागता हो या किसी बागीचे से चुराए हुए आम और लीची चोरी - छुपे उसे देता हो ?

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