हे आम (भाग -1)


सौजन्य : Dailyhunt

आसाढ़ की एक उमस भरी दोपहर थी, पर गंगा किनारे बैठी गाँव सबसे प्रख्यात लंठ (बदमाश) मंडली के दिमाग में कोई और ही खुराफाती बयार बह रही थी । नदी किनारे पसरी मंडली में वैसे तो कथित तौर पर कुल 7 सदस्य थे, पर मंडली का तंबू कुल जमा 4 बंबूओं पर टिका हुआ था । इनमें से पहला बंबू था सहदेव उर्फ शिकारी, महामना पेशे से बेरोज़गार थे और हुडदंगई इनका चाव था। लगातार पिछ्ले 2 सालों से 12वीं कक्षा में ही डेरा डाले हुए थे । दंत कथाओं के अनुसार यहीं लंठ मंडली के संस्थापक थे और तात्कालिक परिवेश में मंडली के अध्यक्ष पद पर आसीन थे । खाते - पीते घर से आते थे, पिता डेढ़ सौ बीघा से ज़्यादा के खेतिहर थे । घर के अगवाडे 2 ट्रैक्टर और 1 स्कॉर्पियो के अलावा घर के पीछवाडे में 12 गायें और 7 भैंसें बंधी हुईँ थीं। घर में इनके और पिताजी अलावा 2 बार ब्लॉक प्रमुख और 1 बार केन यूनियन के चुनाव में अपनी भद्द पिटवा चुके एक बड़े भाई और चूल्हा - चौका भर की दुनिया में सिमटी एक माँ थीं। घर में इनकी बातों उतनी ही अहमियत रखतीं थीं, जितनी किसी इंसानी जिस्म में अपेंडिक्स ।


इनके बाद बारी आती है मंडली में नंबर -2 की हैसियत रखने वाले विषधर की । हालांकि इनके पिताजी ने इनका नाम बड़े शास्त्र मंथन के बाद विश्वधर रखा था, जिसका अर्थ होता है विश्व को धारण करने वाला । सोचा शायद नाम का ही कुछ असर पड़ जाए चाल - चारित्र पर, परंतु इसे पहले ही गाँव के लोगों ने इनके नाम में से 'विश्व' को उखाड़कर, उसकी जगह 'विष' गाड़ दिया।
विषधर के घर में उनके अलावा सिर्फ इनके पिताजी थे, जो पास ही के एक डिग्री कॉलेज में अध्यापक थे और माताजी को स्वर्ग लोक सिधारे लगभग एक दशक से ज़्यादा बीत चुका था । चूँकि पिताजी एक सरकारी मुलाज़िम थे, इसलिए हर महीने एक बंधी - बंधाई मोटी तनख्वाह घर में आती थी और उनके के बाद उनकी पेंशन के इकलौते वारिस भी उनके सुपुत्र ही थे । सरकारी नौकरी से इतर कुछ 50 - 55 बीघा खेती की ज़मीन भी थी, जो पट्टे पर चढ़ी हई थी । यद्यपि विषधर के बिगड़ने का कारण गाँव के हर बुद्धिजीवि की समझ से बाहर था ।अपने गिरोह में विषधर के कथित नंबर 2 की हैसियत के पीछे इनका रणनीतिक कौशल था, विचारधारा से प्रखर साम, दाम, दंड, भेदवादी थे । कभी स्कूल में शिकारी भईया का जूनियर हुआ करते थे, पर तत्पश्चात् अपने जुगाड़ शास्त्र के दम पर BA तक पहुंच चुके थे । मंडली के बाकी सदस्य इनमें अपना भावी अगुआ ( मुखिया ) देखते थे ।


और सबसे आखिर के 2 बंबू थे दो जुड़वा भाई - धुरपद और छैबर, जिनके वास्तविक नाम ध्रुवपद और अक्षयवर थे । विषधर की तरह इनके नामों की भी हत्या करने की सुपारी भी गाँव की लखेरा (आवारा) समिति ने इनके अन्नप्राशन के दिन ही ले ली थी, जब इनके अब्बा हुजूर के गुरुजी ने इनका नामकारण किया था । पिताजी सदर के बाज़ार में किराने की एक दुकान चलाते थे और खेती नाम भर की थी । यद्यपि इनके पिता ने इन रत्नों को पाने के लिए बड़े दान- धर्म किए थे, क्योंकि ब्याह के 9 साल बाद भी घर में कोई औलाद ना थी । जैसा की किसी प्रकांड विद्वान ने कहा है - देने वाला जब भी देता, देता छप्पर फाड़ के । उपर वाले ने भले ही थोड़ी देर से सुनी ,मगर जब सुनी तो 1 पर 1 फ़्री थमा दिया, वह भी सूद समेत । घर में दादा - दादी को भी नए खिलौने मिल गए । एक दिन दोनों पोतों ने अपने दादा के बचपन मित्र को उनके दादा को 'फुलवर छत- छत' कहके चिढ़ाते सुन लिया, तब से अपने दादा को गाहे - बगाहे "फुलवर छत - छत" कहते । दादा भी प्रतिकार के बजाए खिल - खिलाकर उत्तर में "छत - छत" कह देते । एक दिन दोनों पोते अपने दादा को सुबह भोर में फुलवर छत- छत कहने पहुँचे पर दादा फुलवर ने "छत- छत" करने के बाद आगे कोई जवाब नहीं दिया । पता लगा की फुलवर जी छत- छत करते स्वर्ग सिधार गए । दादा के स्वर्ग लोक सिधारने के बाद पिता दुकान और नाम भर की खेती दोनों को संभालने में व्यस्त हो गए और राम जाने कब दोनों लौंड़े हाथ से निकल गए।

इनके अलावा मंडली में शाहबाज़, अरबाज़ और लालचंद नामक 3 सदस्य और थे, जो "जहाँ मार पड़ी, वहाँ भाग पड़ी" के सिद्धांत पर चलते थे । तीनों महानुभाव गाँव के पश्चिमी छोर पर बसे नौका टोला के निवासी थे । इत्तेफ़ाक़न तीनों का सरस्वती माता से बैर था इसलिए इनके अभिभावकों इनको सीधा हाईस्कूल की क्लास रुम से उठाकर दुकान के गल्ले पर बैठा दिया । लंठई (बदमाशी )सिर्फ इनकी हौबी थी, पैशन नहीं ।

सौजन्य :-  NDTV

                           


बहरहाल फिर गंगा किनारे लौटते हैं । नदी किनारे की सूखी घास पर लेटे - लेटे अध्यक्ष जी ऊँघ रहे थे और विषधर अपनी मुट्ठी से भींच - भींचकर घास उखाड़ रहे थे । उधर नदी के मुहाने पर टांगें छितराकर खड़े धुरपद पानी में दे - दनादन शोएब अख्तर की तरह अपने डैने (बाहें) भाँजते हुए पत्थर बरसा रहे थे और इन सभी को छैबर अपनी आँखें फैलाकर ताड़ते हुए मन ही मन गालियों से नवाज़े जा रहे थे । अंततोगत्वा जब छैबर से रहा नहीं गया तो धुरपद पर चिंघाड़ उठे


छैबर - अबे बस करो बे । साला ना तुम्हारे फेंकने से पत्थर खतम होगा ना नदी में पनीए बढ़ेगा । बईठो ढंग से!

धुरपद- काहें ? पत्थर उठा रहे हैं हम, हाथ भाँज रहे हैं हम। तुम्हारा काहें गठरी कट रहा है ?

छैबर - अबे तो पनीआ में ढेला ( पत्थर ) चलाके कऊन सा आल्हा - उदल बनके अमर हो जाओगे ?

धुरपद - ज्यादा चर - चरओ मत । नही तो अगला ढेला तुम्हरे कपार (सर) को पप्पी लेगा ! समझे के नही ?

छैबर - ओ फन्ने खान, फैलो ना ज़्यादा । नहीं तो साले मार - मार के यहीं चरसा (चमडी ) फाड़ देंगे तुम्हारा। रामनवमी मेला वाला दिनवा का कुटाई भूला गए का , हांय ?

धुरपद - रामनवमी ? इतना पीछे काहें जा रहे हो ? साला अभी तुमको पेल के विजयदसमी मनाएँगे !

( धुरपद गुस्से में छैबर की ओर बढ़ता है, विषधर लपकते हुए धुरपद को पकड़ता है )

धुरपद - ( दाँत पीसते हुए ) ए विषधर छोड़ो बे हमको, अबै इस ससुर के नाती का वध करेंगे और यहीं गंगा किनारे इस साले को फूँककर ( जलाकर ) इसका अस्थि विसर्जन भी यहीं करेंगे आज के आज

विषधर- अबे जाए देओ यार, भाई है तुम्हारा ही !

धुरपद - हां तो? भाई है तो का साला कपार पे चढ़ के नाचेगा का..........

( इधर धुरपद को विषधर पकड़े हुए है, उधर शिकारी भी छैबर को खींचकर धुरपद से दूर ले जाने की चेष्टा करता है )

छैबर - (छेड़ने के अंदाज में ) तो आओ ना, बडका अंडरटेकर हौ का ? आओ देख ही लें, साला रोज - रोज का टंटा आजए निपटा दें । आए तो हो चलके पर साला आज लोटा ( अस्थि कलश ) में भरके घर जाओगे....

शिकारी - ( छैबर को डांटते हुए ) अबे चुप बे, चुप !

छैबर - आओ आओ आओ आओ (कुत्ता बुलाने के तरीके से)

धुरपद - ( खुद को विषधर के चंगुल से छुड़ाने की जद्दोजहद करते हुए ) रुक साला रुक...........

विषधर - ( चीखते हुए ) अरे शिकारी यार, पहले छैबरवा को चुप करवाओ नही तो दुन्नू खर - दूषण आजूए ( आज ही ) निपट जाएंगे साले ।

शिकारी - ( छैबर का कॉलर पकड़ते हुए ) अबे चुप ना ! साला पिछला जनम में कउआ (कौवा) थे का दोनों भाई ? कबसे ससुरा काएं - काएं किए जा रहे हो?

छैबर - अबे तो हम का......

शिकारी - चुप ! साले चुप, एकदम चुप ।

( उधर धुरपद का बड़ - बड़ाना जारी रहता है, खींझकर शिकारी धुरपद को मुक्का दिखाता है )

शिकारी - अरे दादा ! चुप होओगे की तुमको भी वहीं आकर छेदें ।

शिकारी का रौद्र रूप देखकर छैबर और धुरपद, दोनों ठंडे पड़ जाते हैं। फिर दोनों पक्ष युद्ध विराम के उद्देश्य से आमने - सामने बैठते हैं। छैबर और धुरपद अब तक एक दुसरे को कच्चा चबा जाने के अन्दाज में घूर रहे होते हैं।

सन्नाते को चीरती सनसनी की तरह विषधर की आवाज़ माहौल में दस्तक देती है । धुरपद को तरेरते हुए बोलता है

विषधर - हाँ, बोलो का बात है । काहें इतना गरमाय हुए हो ?

धुरपद - देखे नही हो पूरा तमाशा ?

विषधर - वो तो देखबे किए हैं । लेकिन बात कुछ और है, वो बतओ ।

धुरपद - ( उत्तेजित होते हुए ) कुछ और का होगा ? हाँ, कुछ और का ?

शिकारी - एएएए ! इधर देखो ! ज्यादा ताव में ना आओ, नहीं तो फ़्री फंड में पेले जाओगे । एक तो साला कायदे से पूछ रहे हैं हमलोग की क्या बात है, उपर से तुम कबसे हम ही लोग से रंगबाजी झाड रहे हो ?

छैबर - ( दोनों बात को काटते हुए) हुंह, साला कुल गर्मिया हम हई लोग पर छांटने के लिए है । कल रतिया (रात को) को दद्दनवा का सामने कुल हेंकड़ी इनके पिछवा.......

अपने ठीक सामने बैठे छैबर की बात सुनकर धुरपद उसपर बाज़ की तेज़ी से झपटता है और सीधा एक घुसा उसके गर्दन पर जड़ता है । अभी इससे पहले की विषधर और शिकारी कोई प्रतिक्रिया कर पाते, तब तक छैबर 4 -5 थप्पड़ चख चुके होते हैं। जब तक खुद छैबर धुरपद के इस आक्रमण का कोई प्रतिकार करते, तब तक विषधर और शिकारी मध्यस्थता करने के इरादे दोनों के बीच में कूद पड़े और धुरपद को छैबर से अलग करने लगे । इसी मल्लयुद्ध के दरमियाँ यमाहा मोटरसाइकिल पर सवार अरबाज़, शाहबाज़ और लालचंद का आगमन होता है । तीनों बाइक को जैसे - तैसे अपनी जगह पर ही छोड़कर सीज़फ़ायर कराने दौड़ते हैं ।

अरबाज़ - अरे रे रे रे रे ! क्या हो गया, क्या हो गया ?

विषधर - अबे दिख नही रहा ? आपस में प्रेम का आदान - प्रदान हो रहा है !

शाहबाज़- हुआ का है लेकिन ? काहें आपस में गुत्थम गुत्था मचाए हुए हैं दोनों ?

शिकारी - अरे दद्दा, बकैती बाद मे करना पहले इनको अलग करो
( धुरपद को अपनी ओर खींचते हुए )
ए धुरपद ! छोड़, छोड़, छोड़ जाए दे, जाए दे

धुरपद - (हाँफते हुए) छोड़ बे शिकारी, आज मामला फरियाए देत हओं पूरा......

इसके बाद दोनों पक्षों को आमने - सामने बैठा कर समझौता हुआ, अगर बात को बम्बईया व्याकरण में कहूं तो मांडवली कराई गई । असल मुद्दे को ठंड़े बस्ते में डालने के लिए थोड़ी देर के लिए क्रिकेट, राजनीति और सिनेमा की गोष्ठी का दौर चला । जब मंडली का वातावरण थोड़ा तन्मय हुआ तो उत्सुकता वश लालचन्द आखिरकार पूछ ही पड़ा

लालचंद- अरे पहलवान अब तौ बताए देओ, का बात रही ?

विषधर अपने ठीक बगल में बैठे लालचन्द का हथेली दबाकर उसे बात ना छेड़ने का संकेत देता है । मगर लालचंद संकेत को अनदेखा कर अपनी बात जारी रखता है ।

लालचंद- बताओ ने यार ?

छैबर और धुरपद मुस्कुराकर एक दुसरे को देखते हैं, धुरपद छैबर को हँसते हुए हाथ के इशारे से ताकीद करता है - तुम ही बताऔ ।

छैबर - अरे नहीं बे तुम ही बताओ

धुरपद - (मुस्कान लिए हुए) अर्रे बता दो, अब थोड़ी कुछ कह रहे हैं ।

छैबर - अरे नही नही तुम ही बको....

धुरपद - गजब हाल है । तुम बता दोगे तो का हो जाएगा ?

दोनों की बातों से उचटते हुए शिकारी दोनों के बीच कूदता है

शिकारी - अरे भक, पहले आप - पहले आप । लखनऊ है का ?
अरे दद्दा हाथ जोडत हैं । दुन्नू में कऊनो सुनाय देओ ।

(सभी वीभत्स हँसी हँसते हैं)

छैबर - सुनो बे, हम बताते हैं । हुआ यह की बाबूजी आज गए ऊ दद्दनवा के बगीचा में आम बीनने ।

शाहबाज - अच्छा फिर ?

छैबर - फिर हुआ यह की भाई साहब आम छँट ही रहे थे की तब तक दद्दनवा आ गया पीछे से।

विषधर - ठीक, आगे बताऔ ।

छैबर - फिर दद्दनवा बोला की "अए लौंडा, ईंहवां का कर रहा है ?" जवाब में भाई साहब बोले देख नहीं रहे हौ आम चुन रहे हैं।
बस इतनी सी बात कही इन्होनें और ससुरा दद्दनवा खऊरा ( गुस्सा) गया और आव देखा ना ताव इनपे धर दिया 2- 3 लाठी ।

लालचंद- (छैबर को बीच में रोकते हुए ) अरे तो मगर धुरपद भाई टेढ़ा नहीं बोलते तो बात इतना बढता क्या ?

छैबर - अरे भक्क, अरे ई कऊन उसका हीरा - जवाहरात लूट कर भाग रहे थे । आम ही लिया था ना, थोडा सा आम दे देता तो उसका दिवाला थोडे ना निकल जाता और वईसे भी गाँव का एतना आदमी एक दुसरे के खेत - बगीचा से फल - सब्जी ले लेता है । अगर हम कुछ गलत बोले हो तो कहो ? हाँ ?

शिकारी - ( धुरपद के कंधे पर हाथ रखते हुए ) अरे बुद्धि के भसुर, अगर आम वे चहिए था, तो हमसे कहते । साला पूरा टाली भर के आम उडेल देते तुम्हरे घर के आँगन में ।

धुरपद- अरे नेता जी, उसके बगीचवा में हमलोग वाला आम थोड़े होता है ?

शिकारी - ( बगल में थूकते हुए ) मतलब ?

धुरपद - अरे नेता जी, मतलब के हापुस आम फलता है उसके बगीचवा में ।

शिकारी - हमारे वाले से भी अच्छा होता है ?

धुरपद - अऊर नहीं तो का, खाए हो कभी ?

अरबाज़ - अए यार, आम - वाम की बात छोड़ो मगर इतना तो मानो की साला दद्दनवा सिस्टम खराब कर रहा है पूरा गाँव का ? आज दद्दन कर रहा है, कल यहीं चीज़ गाँव का बाकी आदमी भी उसके देखा - देखी करेगा ।

शिकारी - सो तो है । तो पल्टन, उठओ अपना अस्त्र - सस्त्र अऊर बोलो धावा दद्दनवा पे । ससुर होईहन बडका पहलवान अपने घरवा मे । जो 7 आदमी टूट के पड़ जाएं उनपे, तब ससुर 10 गिनत - गिनत चें बोल दिहन ।

विषधर - अए यार, बडका लोला हो का ? दद्दन को कूट के का कर लोगे ? चलो आज हम लोग 7 जने हैं तो पेल लेंगे साला को आराम से, पर जो कल कऊनो के दद्दनवा रस्ता चलत धर लिया तब का ? सोचे हो ? उपर से साला राक्षस है भी साला डेढ़ कुंटल का । अकेले में का उखाड़ लोगे उसका ? अउर तो अउर साला मार कुटाई के बाद का बवाल - झंझट अलग । देखो हमारा कहना है की कुछ ऐसा बुद्धि लगाया जाए की धुरपदवा का बदला भी पुरा हो जाए और दद्दनवा भी ठीका जाए । कहें का बोल रहे हो सब लोग ?

विषधर की बात पर सभी हामी भरते हैं और फिर विषधर एक पतली लकड़ी उठाकर नदी किनारे की सूखी रेत पर कुछ नक्शे जैसी लकीरें खींचता । सभी की ओर बारी- बारी से मुखातिब होकर कुछ ना कुछ कहता है । अंत में सभी अपने चेहरे पर शैतानी हँसी लिए कहीं चल देते हैं।
























अबे सब का आज ही सुनोगे ? कुछ अगली बार के लिए भी बाकी छोड़ दो..................
















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