मन की बकैती वाया कबीर सिंह





विगत कई दिनों से मन के भीतर का बेताल, कबीर सिंह देखने के लिए मचल रहा था। तो अपने भीतर के बेताल को शांत करने के लिए उसे पिक्चर का अवलोकन कराना ही पड़ा। खैर, पिक्चर देखने के बाद जैसे ही भीतर का बेताल शांत हुआ, वैसे ही अन्दर का बिक्रम ऐक्टिव हुआ और कहने लगा- बऊआ, पिच्चर तो ताड़ आए, अब कुछ लिख भी लेओ इसपे!"

फिर जब कुछ इष्ट- मित्रों ने भी ललकारा, तो बात ईगो पर आ गई। तो खोला मोबाइल का नोट पैड और टचस्क्रीन पर छई - छप्पा -छई करने लगा। हालाँकि जब लिखने बैठा तो दिमाग थोड़ा नीलबटे- सन्नाटा वाली स्थिति में था, समझ नहीं आ रहा था क्या लिखा जाए? तो थोड़ा फ़ेसबुकियाना शुरु किया। फ़ेसबुक पर हवखोरी करते हुए देखा यहाँ तो जबर वाला बवाल कटा हुआ है। डेढ़- डेढ़ किलोमीटर लम्बी पोस्टें और वीडियो दिखीं, जो या तो कबीर सिंह के ज़िंदाबाद में थी या मुरर्दाबाद में। नई बात इनमें से कोई नहीं कह रहा था।

लिखने वाला अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और नज़रिए के हिसाब से पिक्चर की कमी-खूबी गिनाने में लगा हुआ था। एक ओर जहाँ मेरे कुछ मित्र पिक्चर को मर्द जाती के आत्म- सम्मान से जोडते दिख रहे थे तो वहीं दूसरी ओर कुछ प्राणी कबीर सिंह के खिलाफ यह कहकर मोर्चा खोले हुए थे की - 'The film is all about toxic male masculinity.'

मुझे ज़्यादा अचरज, कॉलेज के दिनों वाली उन सतरंगी तितलियों की बातें को पढ़कर हुआ, जो आजकल नई- नवेली फेमिनिस्ट हुई हैं। वहीं जिनकी #bff_forever हैशटैग वाली इंस्टाग्राम पोस्ट में हम बीसीयों बार टैग हुए होंगे। ना जाने कितनी ही वक़्त साथ में बीता, कितनी ही बार साथ घूमे- फिरे, पर हमारी तरफ से कभी कोई फर्क नहीं आया। यहाँ तक की, एक दूसरे को गालियाँ भी दीं, तो वह भी बिना किसी लैंगिक भेदभाव के दीं।

स्थिति- परिस्थिति चाहें जो रही हो, हमने हमेशा सामने खड़ी मोहतरमा को हमेशा दो हाथ, दो पैर और एक सिर वाला मानवीय जीव ही समझा। यहाँ तक की ऑफ़िस में मेरी रिपोर्टिंग हैड भी एक महिला हैं, पर कभी मैने 'वह महिला हैं' सोचकर, अपने दिमाग को वेट लीफटींग नहीं करवाई। क्योंकि किसी भी मुगाल्ती बुलबुले से कोसों दूर खड़े मेरे दिमाग को पता है, की 'वह मुझ से बेहतर हैं, इसलिए वह मुझसे उपर हैं।' इसलिए कभी अपने तथाकथित मेल ईगो को अपन ने पंख फैलाने का मौका नहीं दिया।

पर अब उन्हीं तितलियों ने मुझपर 'Toxic Male' और Male Patriarch' जैसी तोहमत लगाई, तो थोड़ा दुख ज़रूर पहुँचा। तो फिर मैनें भी सोचा अब वक़्त आ गया है की, क्यों ना मुझे भी अपनी फ्रीडम ऑफ़ स्पीच वाली पर्ची भंजा ( encash) लेनी चाहिए? नहीं तो क्या पता, ईश्वर अगले जन्म में मुझे किसी नार्थ कोरिया जैसे 'स्वर्ग' में ना पटक दे।

खैर, परम आदरणीय कबीर सिंह जी की आत्मकथा पर लौटें, तो पिक्चर और उसकी ऐक्टिंग, राइटिंग व डायरेक्शन से इतर 2 बातें, मेरे दिमाग में सिनेमा हाल से निकलने के बाद से ही तैर रही हैं।

पहली बात तो यह की शायद हम भूल चुके की सिनेमा जो है, वह एक मनोरंजन का साधन है, ना की ज्ञान का। इसलिए हमें उसमें ज्ञान और संदेश जैसी वस्तुएँ खोजना बंद कर देना चाहिए। और जहाँ तक बात रही ज्ञान की, तो उसके लिए स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय, आदि जैसी जगहें हैं।

पर समस्या यह है की हम सिनेमाघरों में तो ज्ञान खोजने जाते हैं और स्कूल-कॉलेजों में जाकर मनोरंजन की तलाश्ते हैं। तो ऐसे में पहले तो हमें अपनी बुनियादी सिद्धांतों को ठीक करने की ज़रूरत को वर्तमान में अपनी जगह से दरके हुए हैं।

इसलिए सबसे पहले तो एक काल्पनिक पिक्चर के सिर पर तमाम सामाजिक बुराईयों का ठीकरा फोड़ना बंद करना चाहिए और सिनेमा को, सिनेमा की तरह ही लेना चाहिए। याद रखने वाली यह भी है की सिनेमा समाज का बिंब होता है, ना समाज सिनेमा का। सिनेमा हमेशा उसी ओर चलता है जहाँ समाज उसे खींचता है।

इसलिए अगर कबीर सिंह में आपको कोई ऐसी चीज़ दिख रही है, जिससे आप आहत हो रहे हैं, तो यकीन करें, वह चीज़ कहीं ना कहीं आप में भी मौजूद है। तो एक बार पलक भर खुद को भी ज़रूर देख लें, किसी भी प्रकार की बकैती करने से पहले।

इसके अलावा मुझ से एक सवाल बार- बार हो जा रहा था की आखिर कबीर सिंह में ऐसा क्या है की ज़माना उनका दीवाना हुआ जा रहा है? सच कहूँ तो इस सवाल का कोई ठीक- ठीक जवाब, बहुत वक़्त तक मेरे पास भी नहीं था, पर थोड़ी वैचारिक लहनतरानियाँ झोंकने के बाद बात समझ आई की समाज अक्सर उन किरदारों को ज़्यादा पसन्द करता है को स्पष्टवादी होते हैं। यह किरदार बहुतायत मौकों पर वहीं करते पाए जाते हैं, जो वह सोच रहे होते हैं और यह कभी सही- गलत के द्वंद में नहीं फंसते।

और चूँकि इनकी करनी- कथनी में ज़्यादा भेद नहीं होता, इसलिए हमें यह किरदार ज़्यादा भाते हैं, चाहें वह खलनायक ही क्यों ना हो? संभवतः यहीं वजह है की हम सब कबीर सिंह को सिर माथे से लगाए हुए हैं, इसके बावजूद की वह हर उस चीज़ को करता है जो इस समाज के नज़र में गलत मानी जाती हैं। कम से कम मेरे अल्प ज्ञानी मस्तिष्क का अर्ध ज्ञान तो यहीं कहता है!

बाकी तो जो है, सो हईये है 😁😁😁

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