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आज जब मैं रामायण के सेतु निर्माण वाले भाग में प्रभु श्री राम और  गिलहरी वाला प्रसंग देख रहा था, तभी अचानक मेरे मन में कथा आई, जो कुछ दिन पूर्व ही मैने 'Alchemist' में पढ़ी थी। चूंकि यह कथा मुझे निजी स्तर पर काफी प्रेरक लगी इसलिए सोचा इसे आप सभी से साझा करना चाहिए। 

बात आज से सैकडों वर्षों पहले सम्राट टाइबेरियस के समय की है, जब रोम में एक वयोवृद्ध व्यक्ति रहा करता था। उसके दो पुत्र भी थे। एक सैन्य अधिकारी था तो दूसरा कवि। अपने- अपने क्षेत्रों में दोंनों की ही कीर्ति बहुत उज्ज्वल थी।  

एक रात्रि उस वृद्ध व्यक्ति को एक स्वप्न आया, जिसमें एक देवदूत ने उसे दर्शन दिए। स्वप्न में उस देवदूत ने बताया की निकट भविष्य में उसके दोनों पुत्रों में से एक के कहे हुए शब्द इतनी ख्याति प्राप्त करेंगे, की आने वाली कई पीढ़ियाँ उसे दोहराएंगी। 

परंतु दुर्भाग्यवश कुछ समय पश्चात एक बालक के प्राण बचाने का प्रयत्न करते हुए उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई। चूँकि उस वृद्ध ने अपना पूरा जीवन बहुत ही धर्मपरायणता से व्यतीत किया था इसलिए उसे स्वर्ग लोक की प्राप्ति हुई। वहाँ उसकी भेंट उसी देवदूत से हुई, जो कुछ समय पूर्व उसके स्वप्न में प्रकट हुआ था। 

देवदूत उसकी प्रशंसा करते हुए बोला "तुमने अपना पूरा जीवन धर्म, सत्यनिष्ठा और सन्मार्ग के पथ पर चलते हुए व्यतीत किया इसलिए मैं तुम्हें इच्छापूर्ति का एक वर देता हूँ। तुम अपनी इच्छा अनुसार मुझसे कोई भी एक वर माँग सकते हो। 

उस देवदूत को प्रणाम करते हुए वह व्यक्ति बोला- "प्रभु, मुझे जीवन में हर एक सुख प्राप्त हुआ। उस दिन जब आप मेरे स्वप्न में आए और मुझे मेरे पुत्र की भावी कीर्ति के बारे में बताया, तो मुझे लगा की मेरे जीवन के सभी अच्छे कर्म प्रतिफलित हो गए। परंतु मेरी हतभाग्यता ने मुझसे यह अवसर छीन लिया और दुर्भाग्य से मैं इस हर्ष के क्षण को देख ना सका। इसलिए मेरा आपसे मात्र इतना ही निवेदन है की जब भी आपकी यह भविष्यवाणी प्रतिफलित हो तो मैं इसे स्वयं देखना चाहूँगा। 

इसके बाद उस देवदूत ने मुस्कुराते उस वृद्ध के कंधे पर हाथ रखा और दोनों की आँखों के आगें एक दृश्य उभर आया। उस दृश्य में किसी जगह इकट्ठे हज़ारों लोग, एक स्वर में किसी अजीब सी भाषा के शब्द उच्चारित कर रहे थे। यह दृश्य देखकर उस वृद्ध व्यक्ति की आँखें नम हो गईं। फिर उस व्यक्ति ने उस देवदूत से कहा- "प्रभु, क्या हम जान सकते हैं की यह लोग मेरे पुत्र की किस कविता का पाठ कर रहे हैं?"

थोडा आगे झुकते हुए देवदूत कहते हैं "तुम्हारे जिस बेटे की कविता पूरे रोम में प्रसिद्ध थी, उसे अब लोग भूल चुके हैं। इस समय तुम जिन शब्दों की ध्वनि सुन रहे हो, वह तुम्हारे सैनिक पुत्र की हैं!" वृद्ध विस्मयक भाव से उस देवदूत को देखने लगता है।

उस वृद्ध के मुख के भाव देखकर ही वह देवदूत उसकी शंकाओं को भांप जाता है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए देवदूत कहता है-  "अपनी सैन्य सेवा में उन्नति करते हुए तुम्हारा सैनिक बेटा एक बड़ा अधिकारी बन गया। उसकी ख्याति इतनी हो गई की दूर देशों तक लोग उसे उसके नाम से पहचानने लगे। इन्हीं सब में एक दिन उसके सेवक का स्वास्थ, सहसा खराब हो जाता है। 

विभिन्न उपचारों के पश्चात भी जब उसके स्वास्थ में कोई सुधार नहीं आता। फिर तुम्हारे पुत्र को एक धर्मगुरु के बारे में पता चलता है, जो दैवीय शक्तियों से लोगों का उपचार किया करता थे। जानकारी मिलते ही तुम्हारा पुत्र उस धर्मगुरु की खोज में निकल जाता है। 

कई दिनों की यात्रा का पश्चात तुम्हारे की भेंट अंतः उस धर्मगुरु से होती है। धर्मगुरु से मिलने पर उन्हें जब तुम्हारा बेटा अपने सेवक के स्वास्थ के बारे में बताता है तो वह तत्काल ही उसके साथ चलने के लिए तैयार हो जाते हैं। परंतु उस धर्मगुरु के आभामंडल से तुम्हारा बेटा इतना विस्मित होता है की वह उन्हें अपने साथ ले जाने का साहस नहीं जुटा पाता।

पर कुछ देर विचार करने के पश्चात तुम्हारे बेटे ने उस धर्मगुरु से कहता है - "हे महात्मा, आप मेरे साथ प्रस्थान करने के लिए तैयार हुए, यहीं मेरे लिए बड़े भाग्य की बात है। परंतु सत्य तो यह है की मेरा निवास इस योग्य ही नहीं की आपके चरण कमल वहाँ पड़े। इसलिए आपसे निवेदन है की कृप्या आप मुझे कोई मंत्र दे दें, जो मेरे सेवक के रोग को हर ले। धर्मगुरु ने भी तुम्हारे बेटे की इच्छा का पालन करते हुए उसे एक मंत्र के साथ विदा कर दिया। वह मन्त्र देखते ही देखते उस सेवक के रोग का निवारण कर देता है और आगे चलकर यहीं मंत्र रोम में क्रांति का द्योतक बना। यहीं वह मंत्र है जिसे तुमने कुछ देर पहले उन हज़ारों लोगों को उच्चारित करते हुए सुना था।"

उपसंहार:-

अपने साधारण जन जीवन में हम कई बार कामों को उनके परिणाम और प्रभाव के हिसाब से वरीयता देते हैं। यहीं वजह है की हम अपने मूल्यवान समय का एक अहम हिस्सा, हाँ और नहीं के द्वंद में व्यर्थ कर, कई सुनहरे अवसर खो देते हैं। गौर करने वाली बात है की मानव सभ्यता के इतिहास को दिशा देने वाली कई घटनाओं के केंद्रीय पात्र साधारण व्यक्तित्व रहे हैं, जिनके किसी एक साधारण दिखने वाले कर्म के परिणाम असाधारण रहे हैं। इसका एक उदाहरण हमें इस कथा में भी मिलता है जहाँ उस धर्मगुरु का सैनिक को दिए हुआ मंत्र का उद्देश्य तो सिर्फ एक सेवक का उपचार था किंतु अंततोगत्वा उसका प्रयोग एक क्रांति के घोष के हेतु होता है। इसलिए फिर उसी घिसिपिटी अपितु अत्यंत ही प्रासंगिक बात को फिर से दोहराऊँगा - कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नही होता।

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