टिटिहरा कहिन....



आज सालों बाद फिर एक पुरानी पुस्तक हाथ लगी। पुस्तक थी 5वीं कक्षा के वेल्यू एजुकेशन विषय की। एक समय था जब यहीं वेल्यू एजुकेशन की पुस्तक बहुत प्रिय हुआ करती थी, पर समय बीतते ना बीतते इसी एजुकेशन की वेल्यू पर धूल की तहें जमती चली गईं। बहरहाल किताब के तमाम पन्नों से होते हुए नज़रें एक विशेष पन्ने पर जा टिकिं।

नज़रें कुछ देर तक उस एक ही पन्ने पर नाचती रहीं। पन्ने पर छपे अक्षरों को पढ़कर आँखों के आगे कुछ चेहरे घूम गए। उनमें एक चेहरा था सुप्रीम कोर्ट के एक तथाकथित 'जाने-माने वकील' का। जो अब से कुछ दिन पहले ही रामायण और महाभारत को अफीम कहने की वजह से सोशल मीडिया पर जनता द्वारा चोटियाए गए थे। पर वह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का, जिसने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाकर उनके संकट को हरा, नहीं तो महोदय की जेल यात्रा का टिकट लगभग कट ही चुका था। गौरतलब है की यहीं महानुभाव कई बार इसी सुप्रीम कोर्ट को मिनरल वाटर पी-पीकर कोस चुके हैं। पर चूँकि आदमी बड़े हैं, इसलिए उन्हें कई चीजों की माफी हैं।

बहरहाल उस पन्ने पर छपे अक्षरों पर फिर से लौटते हैं। उस पन्ने पर छपे अक्षर पंचतन्त्र की एक प्रसिद्ध कथा की ही कड़ी का हिस्सा थे। कथा जिसका लेखा-जोखा, कुछ यूँ था-

बहुत समय पहले एक टिटिहरी पक्षी का जोड़ा हुआ करता था। चूँकि अब टिटिहरी का अंडे देने का समय निकट था और दोनों का बसेरा समुद्र के किनारे था, इसलिए एक दिन टिटिहरी ने टिटिहरे से कहा- यहाँ हमारे अंडे सुरक्षित नहीं होंगे, क्यों ना हम किसी सुरक्षित जगह पर बसेरा कर लें?

टिटिहरा- हुंह! क्यों व्यर्थ की चिंता में पड़ती हो, कुछ नहीं होगा अंडों को।

टिटिहरी- अरे क्यों हठ करते हो? सागर का तेज़ ज्वर तो हाथी तक को खींच ले जाता है, फिर हमारे अंडों की क्या बिसात?

टिटिहरा- अरे क्यों बेकार में बहस करती हो, इस समुद्र की क्या मजाल जो हमारे अंडों को हाथ लगाए? यह तो खुद ही मुझसे डरता है। तुम निश्चिंत रहो!

अंत में टिटिहरे की बातें सुनकर टिटिहरी मन मसोस कर रह जाती है।
दरसल टिटिहरा सर से पाँव तक घमंड में डूबा हुआ था। यहाँ तक की  वह अपने पाँव भी आसमान की ओर करके सोता क्योंकि उसे लगता की वह अपने पाँवों से गिरते हुए आसमान को थाम सकता है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आज एक प्रसिद्ध पत्रकार फलाने कुमार जी को लगता है की समूचा देश वहीं अपनी कानी उँगली पर थामे हुए हैं।  और उन्हें छींक भर आने से राष्ट्र की पूरी संप्रभुता भरभराकर गिर जाएगी।

इन सभी बातों से तंग आकर टिटिहरी एक दिन टिटिहरे का घमंड तोड़ने का मन बनाती है। इसी इरादे से वह अपने अंडों को सागर में बहा देती है। और फिर टिटिहरे को आवाज़ देते हुए कहती है-

अरे सुनते हो? कहाँ गए? देखो तुम्हारे हठ ने क्या कर दिया? समुद्र को लहरें हमारे अंडे बहा ले गईं। मैं कहती थी ना? जो अपने प्रियजनों की बात नहीं मानता उसकी यहीं हालत होती है।

पर इन सब के बावजूद भी टिटिहरे का घमंड टस से मस नहीं होता। वह फिर भी कहता है- अरे तुमने मुझे समझ क्या रखा है? तुम अब देखती जाओ की कैसे अब मैं अपनी चोंच से पानी बाहर निकाल कर समुद्र को सुखाता हूँ ।"

टीटीहरी- अरे मुर्ख तुम अब भी नहीं समझे? इतना घमंड शोभा नहीं देता। किसी से बैर, अपनी शक्ति देखकर ही करनी चाहिए।

लेकिन टिटिहरा था की हार मानने को तैयार नहीं था। उसने फिर डींग हाँकी- अरे, भले ही अकेले मैं यह काम नहीं कर सकता पर मेरे साथी मेरे पक्षी मेरे साथ आ जाएँ तो क्यों नहीं हो सकता?

पर अंत में टिटिहरी कुछ ऐसा कहती है जिससे टिटिहरे को ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं- हे मुर्ख राज! जिस सागर और नदी को करोड़ो पशु-पक्षी हज़ारों सालों में पानी पीकर कुछ नहीं बिगाड़ पाए, उसे तुम अपनी चोंच से सुखा लोगे? और भला यह भी सोचा है की जो पानी तुम अपनी चोंच में भरकर लाओगे, उसे कहाँ जमा करोगे? धरती भी उतनी ही है और जल भी उतना ही है। अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं तो जाओ अपने मित्रों से सलाह करो।

आखिरकार टिटिहरा अपनी पत्नी की बात मानकर अपनी मित्रों के पास सलाह करने जाता है। उसके मित्र, उसे समझा-बुझाकर फिर गरुड़ के पास ले जाते हैं। और गरुड़ उसकी सहायता करने के उद्देश्य से उसे भगवान विष्णु के पास ले जाते हैं। जहाँ अन्त्तोगत्वा भगवान विष्णु अपनी महिमा से ना सिर्फ टिटिहरे को उसके अंडे वापस दिलवाते हैं बल्कि उसे विनम्रता की सीख भी देते हैं।

हालाँकि इस कथा के अंत में भले ही टिटिहरे को मति प्राप्त हो गई हो, पर वास्तविक जीवन में चीजें ठीक इसके उलट हैं। पिछले कुछ वर्षों से इस टिटिहरे की भांति ही कुछ बुद्धिजीवी भी अपनी चोंच से उस संस्कृति रूपी सागर को सुखाने में लगे हैं, जिसका बाल सदियों की गुलामी और अत्याचार भी बाँका नहीं कर पाए। इसकी बानगी देखने के लिए ज़्यादा दूर नहीं बस महीने भर पीछे चलिए।

लॉकडाउन की घोषणा होते ही सरकार ने रामायण और महाभारत दिखाने का एक नेकनीयत वाला फैसला लिया। यह फैसला कुछ लोगों की नाभि में श्री राम के बाण की भान्ति जाकर गड़ गया। खासकर उनके, जिनके प्रोपोगेंडा की दुकान रात 9 बजे से सजती है। हमारे प्रिय फलाने कुमार जी तो इतने आहत हुए की उन्होंने भोजपुरी में वीडियो तक निकल दिया। खैर यह होना स्वाभविक भी था क्योंकि आदमी जब अवसाद और क्रोध के चरम पर पहुँचता है, तो उसके मुँह से सिर्फ उसकी मात्रभाषा के ही शब्द फूटते हैं। महोदय ने जो कहा था, उसका कुल लब्बोलुआब यहीं था की आखिर वह कौन लोग हैं जो रामायण देखने की माँग रहे हैं? जबकि वास्तव में जनता तो सड़कों पर है! पर जबसे रामायण से जुड़े TRP के आंकड़े आए हैं, तबसे उनके और उनके भक्त गणों के बीच शोक पसरा हुआ है। ठीक वैसा ही जैसा की अक्सर उनका प्रपंच धरे जाने पर होता है।

 रामायण की सफलता उनके और उनके गिरोह के लिए एक और करारा झटका है। हालाँकि 2014 से अब तक वह ना जाने ऐसे कितने ही झटके खा चुके हैं। तबसे अब तक ना जाने कितनी ही बार जनता उनको यह बताया है की इस देश का नैरेटिव अब उनके मालिक के चेम्बर से तय नहीं होगा। तो आपसे निवेदन की कृप्या लॉकडाउन खत्म होने के बाद कुछ दिन बिना ताम-झाम के अपने स्टूडियो के बाहर भी बिताइए ताकि आपको यह एहसास हो सके ही धरती सूर्य की परिक्रमा करती है ना की आपकी।

आज जब सालों बाद टिटिहरे वाली कहानी फिर से पढ़ी तो लगा की यह कहानी फलाने कुमार जी और उनके गिरोह के सदस्यों तक पहुँचाई जानी चाहिए। इसी आशा में की शायद आप टिटिहरे से ही आप कुछ सीख जाएँ। पर वास्तव में इस चीज़ की आशा उतनी ही है जितनी की शम्स के पश्चिम से निकलने की। शम्स की जगह सूरज लिखने का साहस इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि कहीं आपके के भक्त मुझ पर 'फासिस्ट- फासिस्ट' कहकर ना टूट पडें। वैसे चाहता तो यह कहानी आपको सीधा वॉट्सएप्प पर भी भेज सकता था, पर फिर यह सोचकर थम गया की कहीं आप इसमें कोई धार्मिक या साम्प्रदायिक कोंण ना ढूँढ लें क्योंकि आपके लिए तो कुछ भी असंभव नहीं है। आप तो चीन को निर्दोष साबित करने जैसे दुर्गम कार्य करने में भी सक्षम हैं, जिसका साहस इस समय दुनिया की बड़ी-बड़ी महाशक्तियाँ नहीं कर पा रहीं है।

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