एक नज़रिया और.............



 कथा - कैदी                                         

लेखिका - अंजलि चौधरी


बात आज से कुछ वर्ष पूर्व की है, जब रंगमंच शब्द से वास्तव में मेरा परिचय होना आरंभ ही हुआ था। इसी क्रम में उन दिनों मंडी हाउस के विख्यात श्री राम आर्ट सेंटर में मेरा आवागमन सहसा बढ़ गया था। उसी गति से, जिस गति से उन दिनों अवैध बूचड़खानों की तरह नए-नए यूट्यूब चैनल उपट रहे थे। 


उस परिसर में इतना रम चुका था कि प्रांगण के भीतर होने वाले काल्पनिक कथाओं पर आधारित नाटक से लगाए, बाहर सड़क पर होने वाले असली तमाशे की पटकथा, संवाद सबकुछ कंठस्थ हो चुके थे। एकदिन परिसर के प्रांगण में चकल्लस झाड़ते हुए एक छोटे से हस्तनिर्मित पोस्टर पर नज़र पड़ी। 


उसपर अन्ग्रेजी में एक कथन उकेरा हुआ था, जो कुछ यूँ था- 


"Our demands are simple, normal, and therefore they are difficult to satisfy. All we ask is that an actor on the stage live in accordance with natural laws."


इसके ठीक नीचे एक नाम लिखा था, जिसे पूरा पढ़ने हेतु मुझे 2-3 प्रयास करने पड़े। 


वह नाम था Konstantin Stanislavski. 


 हर काम की बात की तरह, यह बात भी उस समय बुद्धि के बंद पड़े ज्ञान वाले कपाट को खट-खटाकर आगे बढ़ गई। परंतु आज वर्षों बाद फिर इस कथन का जीवन में पुनरागमन हुआ। कारण बनी एक कथा शृंखला, जिसका नाम है 'कैदी'। 


30 छोटे-छोटे भागों में बंटी यह कथा लिखी है अंजलि चौधरी ने, रेडिओ मिर्ची के लिए। इसे आप यहाँ से सुन सकते हैं। 



बहरहाल यह कथा सुनने में जितनी सरल और सहज है, इसकी लिखाई उतनी ही कठिन रही होगी। क्योंकि पूरी कथा में शायद ही ऐसे किसी बिंदु ने स्पर्श किया, जिससे बनावटीपन की अनुभूति होती हो। इस कथा की सादगी ही इसका वास्तविक बल है। 


सादगी, जो आजकल के अधिकतर लेखकों की लेखनी में खोजे नहीं मिलती। चूंकि कथा सरल है, इसलिए निसन्देह इसकी लिखाई कठिन रही होगी। क्योंकि बिना कोई निरर्थक ताम-झाम परोसे, कथापर्यंत सादगी को बनाए रखना अपने आप में एक दुर्गम कार्य है। यहीं पक्ष लेखक की कुशलता को भी परिलक्षित करता है। 


यह दक्षता, और निखरकर आती है जब आप पात्रों के संवाद को ध्यानपूर्वक सुनते हैं। उदहारण के लिए, कहानी में एक स्थान पर सूत्रधार, मुख्य पात्र की नौकरी का वर्णन करते हुए कहता है-


.... और तनख्वाह भी समय पर मिल जाती है। वैसे तो सुनने में यह वाक्य बहुत साधारण लग सकता है परंतु इस्का महत्व बहुत ही असाधरण है। कथा में भी और वास्तविक जीवन में भी। कैसे? इसपर चर्चा करके मैं समय व्यर्थ नहीं करना चाहता। 


इसके अतिरिक्त एक स्थान पर जब एक पात्र कहता है कि "लड़की अच्छी है, पढ़ी लिखी है, और सबसे ज़रुरी बात कि वह पुनीत के ही समाज की है।" यह सुनकर इस बात का भान होता है कि इस कथा में उपजने वाला प्रेम यथार्थवादी है, जो समाजिक धरातल से जुड़ा हुआ है। वहीं यथार्थवाद, जो अधिकतर समकालीन लेखकों की प्रेम कथाओं में लुप्त होता जा रहा है। 


साथ ही विभिन्न स्थानों पर प्रयुक्त हुए उपमा और रूपक, कथाकार की परिपक्वता के परिचायक हैं। 


अगर चर्चा को कहानी की ओर मोडें, तो यह कहानी है पुनीत की जो, अपने माता-पिता के देहांतपर्यंत अपने चाचा के परिवार के साथ रह रहा है। आपकी और मेरी ही तरह साधरण जीवन व्यतीत कर रहा है और ऐसा ही करते रहने की प्रत्याशा भी रखता है। परंतु उसके भाग्य ने उसके लिए कुछ और ही नियत कर रखा है। 


वैवाहिक जीवन वाले सुखद स्वप्न के आलोक में चलते हुए कैसे एक निर्दोष मुलाज़िम, पेशेवर मुलज़िम बन जाता है,पूरी कहानी इस सूत्र के सहारे आगे बढ़ती है। इससे इतर अगर आपके अंतर्मन में कोई पश्न है, तो उसका उत्तर पाने के लिये आपको यह कथा सुननी पड़ेगी। 


इन सभी बातों से इतर यह कथा पुनीत की उस त्रासदी की है, जिसके शिकार कहीं ना कहीं मैं और आप भी हैं। त्रासदी है अंतर्मन की व्यथा ना सुने जाने की। कथा पर्यंत पुनीत की इस पीड़ा की अनुभूति कि जा सकती हैं। कई अवसर आते हैं जब पुनीत कुछ कहने की चेष्टा करते- करते, एकाएक सब कुछ ज़म कर जाता है।


 कालांतर में यह सब कुछ उसके भीतर इक्कठा होकर एक अदृश्य दीवार का रूप ले लेता है, जो उसे उसके अंतर्मन से काफी समय तक काटे रखता है। इस दीवार में दरार तब तक नहीं आती, जब तक भीतर का संताप पूरी तरह नहीं सूखता और जब तक संताप सूखता है तब तक व्यक्ति उस रेखा को पार कर चुका होता है, जहाँ से फिर लौटा नहीं जा सकता। कहानी से अलह, वास्तविक जीवन में हमारी भी कैफ़ियत कुछ ऐसी ही है। 


पुनीत के किरदार को हर वह व्यक्ति अपने करीब पाएगा, जो इस समय अपने जीवन में नितांत एकाकीपन से जूझते हुए, अपने भीतर एक लड़ाई लड़ रहा है। इस किरदार में एक गुनगुनी-सी गर्माहट है, जो इसे आपके दिल के करीब रखेगा।


अगर आप कहानी पहली बार सुनेंगे तो प्रथम दृष्टया, आपको आरंभिक भाग में आने वाले किरदारों के समक्ष पुनीत का किरदार थोड़ा निर्बल लग सकता है। किंतु कहानी के आगे बढ़ने के साथ, जैसे ही पुनीत के किरदार पर चढ़ी हुई परतें उधड़नी शुरु होंगी, आपकी आशंकाएॅ निर्मूल साबित होंगी। शुरुआती भागों में जब तक पुनीत का पात्र कथा की बागडोर अपने हाथों में नहीं लेता, तब तक पराग बड़ी कुशलता से कहानी की लय को थामे रखता है। 


जब आप पुनीत के संसार से विदा लेंगे, तो मेरे विचार में 2 मुख्य बातें अपने साथ लेकर आयेंगे। पहला तो यह की बुरा या भला, व्यक्ति नहीं होता। बुरी या भली सिर्फ वह परिस्थिति होती है, जिसके आलोक में हम उसके बारे में कोई राय निर्धारित करते हैं। 


औत दूसरी बात यह कि आपकी पीड़ा आपके लिए तब तक ही असहनीय है, जब तक आप खुद से अधिक पीड़ा सहता हुआ व्यक्ति नहीं देख लेते। 


बहरहाल कथा की गति और लय बहुत सटीक है। ना बहुत तीव्र है, ना बहुत धीमी है। उन्मुक्ति के क्षणों में, आनंदमयी भाव के साथ इसे चाव से सुना जा सकता है।


 अब अंत में विदा लेते हुए, कुछ शब्द इस कथा के भावी श्रोताओं के लिए। इस मृत्युलोक में दो प्रकार के पाठक या श्रोता हैं। पहले वह हैं, जिन्हें अब भी प्रेम कथाओं में प्रणय, भूतहा कथाओं में भय और व्यंग कथाओं में हास्य और विनोद की अनुभूति होती है।


और दूसरे वह हैं, जिन्हें अब अनायास ही, बिना ढूँढे, प्रेम कथा में व्यंग, व्यंग कथाओं में भय और भूतहा कथाओं में प्रेम मिल जाता है।


पहली श्रेणी के पाठक/ श्रोता वह है, जो कथाओं के आधार पर जीवन का दृष्टिकोण तय करते हैं और दूसरे वह हैं जो वास्तविक जीवन के अनुभवों वाले ऐनक से कथाओं को देखते हैं। 


यह कहानी अपने आप में इतनी सक्षम है कि यह दूसरी श्रेणी के श्रोताओं को भी अपना ऐनक उतारने पर विवश कर देगी। 


बाकी जो है, सो हईए है! 

Comments

  1. कहानी की लिखावट बहुत अच्छी है

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