Cricket Before Crush

 

        ऐसा नहीं है कि मेरा, क्रिकेट, और मायूसी का नाता कोई नया है। यह नाता तब का है जब धोनी खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर यात्रिओं के टिकट चेक कर रहे थे, अटल- आड़वाणी की जोड़ी 'इंडिया शाईनिंग' के नारे को गढ़ने में व्यस्त थी, वसीम और वक़ार पाकिस्तानी गेंदबाज़ी की धुरी थे, वर्तमान पाकिस्तानी पेस बैटरी के सितारे नसीम शाह मात्र एक महीने के थे और पलंग में लोटे, किलकारि भर रहे थे। सद्दाम हुसैन का सिक्का इराक़ पर जमकर चल रहा था और सेट मैक्स पर सूर्यवंशम और डॉन नं. 1 के अलावा क्रिकेट भी आता था।


23 मार्च 2003 का दिन था, प्रमुख खबरों में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और कश्मीर के नदिमर्ग में मारे गए 24 कश्मीरी पंडित होते अगर भारत ऑस्ट्रेलिया के साथ विश्व कप के फाइनल में भिड़ नहीं रहा होता। 


वहीं टीम जिसका एक महीने पहले नीदरलैंड के हाथों लगभग छीछालेदर होते-होते बचा था, आज कप जीतने से सिर्फ एक पग दूर थी। देश भर में खेल प्रेमियों का जुनून अपने उरूज पर था। 


क्रिकेट के शौकीन पिता जी ने मेरे लिए बड़े चाव से एक भारतीय टीम की जर्सी बनवाई थी, जिसपर मेरा नाम लिखा था। हर खास दिन की तरह, उस दिन भी समय ने भी अपनी चाल थोड़ी धीमी कर दी थी। समय काटने के लिए पिता जी महाभारत देखने लगे और मैं घर की बाल्कनी में बल्ला थामे शैडो बैटिंग करने लगा।


 तभी अचानक केबल टीवी के कनेक्शन में कुछ खराबी हो गई। यह होते ही बलवा मच गया। लोग एक दूसरे के घर की घंटी बजाकर पूछने लगे की क्या उनके यहाँ केबल कनेक्शन ठीक से काम कर रहा है? कोई अन्य दिन होता तो यह गुनाह माफ होता, पर विश्व कप फाइनल वाले दिन यह किसी राष्ट्रद्रोही गतिविधि से कम नहीं था। केबल वालों के दफ्तर का फ़ोन खड़कने लगा। हर फ़ोन करने वाला उन्हें हर उस अलंकार-उपमा से पुरस्कृत कर रहा था, जिसे जनसामान्य की भाषा में गाली की श्रेणी में गिना जाता है। इस प्रेमवर्षा का असर यह हुआ कि आधा घंटा बीतते ना बीतते टीवी पर सभी चैनल आने लगे। 


             खैर, मैच शुरु हुआ और 2 घंटे बीतते-बीतते सबके उत्साह पर 'चिल्ड वॉटर' फिर गया। वहीं रिकी पोंटींग जिनका बल्ला पूरे विश्व कप में साँस तक नहीं ले पा रहा था, आज चाचा चौधरी का भीम सैनी लट्ठ बना हुआ था। 40वें ओवर में  नेहरा जी की एक गेंद पर पोंटींग ने एक शॉट खेला, जिसमें बल्ला उनके एक हाथ से छूट गया, पर एक हाथ से ही लगे उस शॉट में इतनी ताक़त थी कि गेंद स्क्वैयर लेग के ऊपर से छक्के के लिए निकल गई। यह दृश्य देख, पिता जी रिमोट को किसी लावारिस वस्तु की तरह पटकते हुए, दूसरे कमरे में चले गए।



 इसके बाद तो भारतीय खेमे में मानो भगदड़ मच गई। भारतीय टीम मानो पोंटींग और मार्टिन से कह रही हो- "भाई एक काम करते हैं, आराम से जितना चाहें खेल लो और आखिर में बता देना की कितने रन बनाने हैं?"


खैर ऑस्ट्रेलिया की पारी खत्म हुई और स्कोरबोर्ड पर 359 रन टंग चुके थे । और इधर बोर्ड पर 359 रन देखकर भारतीयों की साँसें टंग चुकी थीं। अब बस सचिन तेंदुलकर नाम का ही आसरा था, जो पारी के पहले ही ओवर में भरभरा गया। जब प्रभु पारी के पहले ही ओवर में पवेलियन कूच कर गए। उसके बाद जो हुआ, उसका अंदेशा सबको पहले से ही था। पर यह हार तब उतना नहीं चुभी। इसकी चुभन का असली एहसास हुआ 2007 में। जब विश्व कप के राउंड रॉबिन स्टेज में ही श्रीलंका ने भारत को धकिया के बाहर ठेल दिया। संयोगवश यह मैच भी 23 मार्च को ही खेला गया था। 

2003 वाला दर्द उस दिन ज़्यादा चुभा क्योंकि पूरी एक पीढ़ी के नायकों का करियर बैरंग ही समाप्त हो गया। जितना दर्द हार का था, उससे कहीं ज़्यादा दर्द अनिल कुंब्ले, राहुल द्रविड़ और सौरव गांगुली के उदास चेहरों को देखकर हुआ। इसके बाद BCCI और भारतीय टीम के साथ-साथ विश्व कप जीतना एक पूरी पीढ़ी का सपना बन गया। जो आखिरकार 2011 में पूरा हुआ। 2 अप्रैल, 2011 के दिन लाखों ऐसे लोग थे, जिन्हें लगा की उनकी जीवन का एक बड़ा उद्देश्य पूर्ण हो गया हो। 





इस विश्व कप जीत की गंगा नहाने के बाद मानो सारी इच्छाएं खत्म हो गईं। इसके बाद क्रिकेट में रुझान सिर्फ स्कोर जानने तक का रह गया। पर पिछले 1 महीने में इस प्रवृत्ति में बड़ा परिवर्तन आया। अचानक पुराना क्रिकेट प्रेमी अंडरटेकर की तरह जाग उठा। मन-  मस्तिष्क फिर उसी आशा से ओतप्रोत हो चला था। इतना कि जो उपहार में मिली हुई क्रिकेट जर्सी पिछले कई महीनों से आल्मारी में धूल फाँक रही थी, उसे बाहर निकलने का मौका मिला। ना सिर्फ बाहर निकली बल्कि धारण भी की गई।


वैसे तो यह बात सामान्य लग सकती है पर मेरे विषय में असामान्य इसलिए थी क्योंकि गत कई वर्षों से क्रिकेट की जर्सी पहनने को मैंने  बचकानी चीजों की श्रेणी में रख दिया था। पर इसबार उत्साह ऐसा था कि ना सिर्फ बचकानी चीजें हुईं बल्कि बचकानी बातें भी हुईं।

पर इस उत्साह की आयु बड़ी अल्प थी। जो सेमीफाइनल में बटलर और हेल्स की कुटाई के आगे दांत चियार गई। इस दिन उठी चुभन में वहीं 23 मार्च, 2007 वाली टीस थी। 



जीवन के उतार - चढ़ाव ने हार को गले लगाने का फ़न बखूबी सिखा दिया है। पर यह हार दिल पर लगी, कितनी गहरी? इसका अनुमान इसे पढ़कर आपको हो ही गया होगा। क्योंकि  मैं उस पीढ़ी का हूँ, जिनके जीवन में 'First Crush' से पहले क्रिकेट आया था। 


खैर, प्रेम और आशा से धुली हुई जर्सी, जो फाइनल के लिए रखी गई थी, वह फिर से अल्मारी में ठेल दी गई है अनंतकाल के लिए। पर जब भी आल्मारी खोलो, एक बार को जर्सी भी चिकोटि काटते हुए कह ही देती है-


"उम्र पिघली मोम सी मेरी,

ऐसी भी क्या ज़िद है तेरी?


करा दे अब दीदार-ए-मौका,

मौका, मौका"









Comments

  1. 😹 जीवन के सारे mje एक तरफ और क्रिकेट मैदान में खिलाड़ी के हाथ से बल्ला छुटने पर आने वाला मजा एक तरफ

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