बेताल छब्बीसी (भाग-2)
खदेडू की दुकान पर चाय-समोसे के साथ इलाके भर की खबरें, कंठ के नीचे पेट भर उतारने के बाद विक्रम-बेताल अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। अभी कुछ दूर चले ही थे कि सामने का दृश्य देखकर दोनों आतंकित हो उठे। सामने से हवलदार पटकन सिंह और हुडदंगी लाल अपनी तोंद छलकाते हुए चले आ रहे थे। हालाँकि उनके चेहरे पर मास्क चढ़ा हुआ था, लेकिन उनके डील-डौल और शारिरीक हाव भाव से उन्हें पहचानना किंचित मात्र भी कठिन नहीं था। दोनों अपने - अपने तंत्रसंचालक अर्थात डंडे, ज़मीन पर पीटते हुए काल की गति से आगे बढ़ रहे थे।
इन्हें देखते ही बेताल ने हड़बड़ी में मास्क पहनने लगा। वहीं पहले से ही मास्क धारण किए बैठे विक्रम ने भी मास्क को थोड़ा ऊपर चढ़ाया। इतने में चलते हुए दोनों हवलदारों के करीब आ गए। पटकन सिन्ह गरज़ते हुए मास्क के भीतर से ही बोले-
"सुने हो ना, जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं। केस कम हो गए इसका मतलब यह नहीं है कि कोरोना खतम हो गया। कोरोना अभी यहीं है और हम भी, ताकि कोई ढिलाई ना बरते। समझे की नहीं?"
कहते हुए पटकन सिंह और हुडदंगी लाल दोनों आगे बढ़ गए। चूँकि सोशल डिस्टेनसिंग की धज्जियाँ हर कोई उड़ा रहा था, ऐसे में इस बाबत केवल इन दोनों को टोकना पटकन और हुडदंगी ने उचित नहीं समझा। तो बस अपना तंत्रसंचालक ज़मीन पर घिरियाते हुए दोनों आगे बढ़ गए।
वहीं विक्रम और बेताल, दोनों को कातर दृष्टी से खुद से दूर जाता हुआ देख रहे थे। इस क्रम में विक्की भाई की गर्दन लगभग पीछे की ओर इतनी ज़्यादा घूम चुकी थी कि बस अगर कोई हाथ लगाकर हल्का सा और घुमा देता, तो इनकी जीवन क्रीड़ा वहीं समाप्त हो जाती।
खैर, पटकन सिंह और हुडदंगी लाल के जाते ही दोनों के शरीर के भीतर का रक्त प्रवाह सामान्य हुआ। सनसनी वाले चचा की भांति ही सन्नाटे को चीरते हुए बेताल की वाणी गूंजी-
"एक बार को हमें तो लगा था कि आज फिर लपेटे में ना आ जाएं।" बेताल के मुखमंडल का भय, भूतकाल में घटी किसी अप्रिय घटना की चुगली कर रहा था, जिसका सम्बन्ध कहीं ना कहीं पुलिस से ही था। बेताल के स्वर में स्वर मिलाते हुए विक्रम भी बोले-
"हाँ भाई, हमको भी लगा ही था। हमारे दिमाग में सबसे पहले तो लॉकडाउन वाले वीडियो आ गए, जिसमें पुलिस हवाखोरों का सत्कार कर रही थी!"
बेताल- सत्कार? हमने तो केवल थुराई वाले वीडियो देखे थे!
विक्रम- अरे भाई हमारे शब्दों पर मत जाओ। हमारी बातों में निहित व्यंग समझो।
बेताल- केवल नाम में शुक्ला होने से हर कोई श्रीलाल शुक्ला नहीं हो जाता बऊआ। एको अहं द्वितीयो नास्ति...
विक्रम- वहीं तो! वह श्रीलाल शुक्ला थे और हम विक्रमचंद्र शुक्ला हूँ। ना उनके जैसा कोई और था और ना मेरे समान कोई होगा।
बेताल (हें, हें, हें, हें)- भाई तुम्हें पता है समाज के लिए सबसे घातक किन 2 प्रकार के व्यक्ति होते है?
विक्रम- अब ऐसा है कि जब तक खोपड़ी पर तुम सवार हो, तब तक इसमें सिवाय दर्द के कुछ और हो नहीं सकता। इसलिए दार्शनिक के फूफा ना बनो और सीधा मुद्दे पर आओ!
बेताल-(खींझते हुए) हाँ तो सुनो! पहली श्रेणी में आता है वह व्यक्ति जो परम मूर्ख होता है। पर यह बात उसे छोड़कर सबको पता होती है।
दूसरी कैटेगरी है उनकी जो अत्यधिक क्षमता और बुद्धिमत्ता वाले होते हैं और दुर्भाग्य से उन्हें इस बात का पता होता है।
अब दोनों ही मामलों में होता यह है यह दोनों किसी के नियंत्रण में नहीं आते और सदैव अपने मन की करते हैं। ना ही यह दोनों अपने आगे किसी को कुछ समझते हैं और ना ही किसी की बातें अपने कानों पर धरते हैं। और अन्ततोगत्वा दोनों ही कोई ऐसा कारनामा कर गुजरते हैं, जिसकी भरपाई सर्व समाज करता है।
विक्रम- हम्म्म्म्म! मानना पड़ेगा तुमको। अपने बारे में तुम्हारा विश्लेषण बहुत सही है।
(मास्क को नाक के नीचे करते हुए)
बेताल (हें, हें, हें, हें, हें) भाई असल में जब तुम 'मेरे समान कोई ना होगा' वाला डायलॉग मारे तो हमको याद आ गई यह बात! तो सोचा बता दें। और बताओ तुम्हरी शिकायत अब दूर भई के नाही?
विक्रम- चाय- समोसे से तो आत्मा संतुष्ट हो ही गई थी बाकि कोर-कसर खदेडूआ के अड्डे का गप्प सड़ाका पूरा कर दिहिस। बाकी खदेडूआ आदमी चाहें कितना भी लंठ हो, लेकिन समोसा जानदार बनाता है।
बेताल- सही बात है। अच्छा हम एक बात सोच रहे थे!
विक्रम- का?
बेताल- यह कि अगर सोनपापड़ी नश्वर है तो क्या इसका संबंध अश्वत्थामा से भी हो सकता है?
विक्रम- अश्वत्थामा? अरे नहीं तुम भी यार कहाँ की बात कहाँ जोड़ रहे हो?
बेताल- क्यों नहीं हो सकता? अगर तुम्हरीए बात को आगे बढ़ाएँ, तो अगर सोनपापड़ी द्वापर काल में भी थी!
विक्रम- बिल्कुल थी!
बेताल- तो ऐसे में हो तो यह भी सकता है कि इसका संबंध अश्वत्थामा से भी हो!
विक्रम- अश्वत्थामा से? ज़रा फ्लैश लाईट मारो अपनी इस बात पर!
बेताल- अब सुनो। हमारा मानना है कि सोनपापड़ी को वरदान नहीं श्राप मिला होगा नहीं तो ऐसा क्या नहीं है इस मिठाई में जो इसकी यह दुर्गती हो रही है। स्वाद में बढ़िया है, दाम भी बहुत ज़्यादा नहीं है, जिस फ्लेवर में ढालो उस में सरलता से ढल जाती है, और सबसे ज़रुरी जल्दी खराब नहीं होती। दादा लें, पोता बरतें वाला हिसाब है। पेड़ा, रसगुल्ला या राजभोग जैसे नहीं, जो 2 दिन बीतते ना बीतते दाँत चियार देतीं हैं।
विक्रम- ह्म्म्म्म्म्।
(नाक के नीचे सरके हुए मास्क को फिर नाक के ऊपर खींचते हुए)
बेताल- अब इतनी खूबी होने के बाद भी किसी की इतनी दुर्दशा होना वाकई दुखद है। इसलिए हमारा सिद्धांत कहता है कि सोनपापड़ी का लेना देना अवश्य गुरु पुत्र अश्वत्थामा से रहा होगा और उसी का दंड आजतक वह भुगत रही है।
विक्रम- हे महबाहो! कृप्या अपने इस कालजयी और त्रिकारी सिद्धांत को सत्यापित करने का कष्ट करो।
बेताल- अगर देखा जाए तो ऐसा भी हुआ हो सकता है कि जब अश्वत्थामा ने पाण्डव पुत्रों के वध के बाद, गए तो प्रभु श्री कृष्ण और पाण्डव तो अश्वत्थामा के वध के उद्देश्य से हों, पर वहाँ उन्हें अश्वत्थामा सोनपापड़ी खाते हुए दिख गए हों।
और इस दृश्य ने प्रभु श्री कृष्ण को इतना क्रोधित कर दिया हो कि उन्हें लगा हो कि इस कृत्य के लिए अश्वत्थामा को मृत्यु दंड देना तो माफ कर देने जैसा हो जाएगा। अतः यहीं से प्रभु के मन में आया कि आखिर क्यों ना इसे युगों- युगों तक भटकने का श्राप दे दिया जाए।
विक्रम- हम्म्म्म्म! इंट्रेस्टिंग। (चेहरे पर एक विजयी भाव लिए हुए) अच्छा यह यह बताओ कि इसके बाद उस स्यमंतक मणि का क्या हुआ होगा?
(चेहरे पर आश्चर्य का भाव लाते हुए)
बेताल- प्रभु अपने साथ के गए होंगे!
विक्रम- नही, नही। इंकार तो इस संभावना से भी नहीं किया जा सकता है कि जब प्रभु ने अश्वत्थामा की मणि निकाली हो तब वह वहीं छूट गई हो।
बेताल- ठीक! फिर आगे?
विक्रम- और फिर वहीं मणि उस हलवाई के हाथों पड़ गई हो, जिसने सोनपापड़ी का आविष्कार किया हो। बाकि आगे की कथा तुम्हें ज्ञात है ही।
बेताल- ठीक कहे मित्र। लगता है, आज मेघराज गरजने वाले हैं!
विक्रम- (आसमान की ओर सिर उठाते हुए) अच्छा! लगता तो नहीं। आसमान तो पूरा सफाचट है। बादल एकौ नहीं दिख रहा है।
बेताल- (हें, हें, हें, हें) अरे तुम समझे नहीं। बारिश आज इसलिए होगी क्योंकि आज युगों बाद तुम और हम एक ही बात पर मतैक्य
हुए हैं। तो स्वाभाविक है कि इस अलबेले संयोग पर मेघों के नेत्र तो छलकेंगे ही।
विक्रम- अब रहने दो, मुँह ना खुलवाओ, नहीं तो बहुत कुछ और छलक जाएगा।
बेताल- अच्छा, वैसे एक चीज़ और नहीं हो सकती?
विक्रम- क्या?
बेताल- कि प्रभु श्री कृष्ण ने गुरु पुत्र अश्वत्थामा को मृत्यु से वंछित रहने का यह श्राप इसलिए भी दिया हो सकता है कि प्रभु......
(बेताल को काटते हुए)
विक्रम- प्रभु चाहते हों कि आने वाले युगों में अश्वत्थामा जी भी सोनपापड़ी के आतंक का यह चरम अपनी आँखों से देखें और हर घड़ी अपने अपराध पर शर्मिंदा होते रहें। और अश्वत्थामा ही क्यों? यह श्राप तो मेरे और तुम्हारे समेत पूरी मानव जाति भोग रही है।
बेताल- क्या बात है? तुमने तो मेरे अन्तर्मन की बात कह दी।
विक्रम- हम तो हैं ही अन्तर्यामी!
( चमकीली पन्नी में लिपटा हुआ एक डिब्बा विक्रम की आँखों के आगे रखते हुए)
बेताल- अच्छा बताओ तो इसमें क्या है?
विक्रम- वहीं! प्रभु का श्राप, जिसकी कथा हम और तुम पिछले 2 घंटे से बांच रहे हैं।
बेताल- रहिमन सोनपापड़ी राखिए, कांखन बगल दबाए।
जाने कौन मोड़ पे मीत, नात, बंधु मिल जाए।
विक्रम- जय हो!
Jao ho prapbhu 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻👌👌👌👌
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