वे रहीम नर धन्य हैं....
भक्त रहीम अपने एक दोहे में कहते हैं-
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग|
अर्थात वह लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है। जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है।
कुछ ऐसा ही जीवन दादा जी का भी रहा। अपने लगभग 6 दशक के वृहद सामाजिक जीवन में उन्होंने सदैव निष्काम रूप से स्वयं को दूसरों के लिए उप्लब्ध रखा। चाहें विज्ञान के छात्र के रूप में अपने आर्थिक रूप से निर्बल सहपाठियों को अपने स्तर से प्रोत्साहन देना हो, चाहें शिक्षक के रूप में पिछड़े आँचल से आने वाले आभावग्रस्त छात्रों के लिए शिक्षण को सरल बनाना हो, चाहें स्थानीय राजनीति में निर्वाचित जनप्रतिनिधि की भूमिका में अपने कर्तव्यों का सम्यक रूप से निर्वहन करना हो या नागरिक के तौर पर अपने द्वार पर आए हुए सहायता के अभिलाषियों की यथासंभव सहायता करना हो। उन्होंने हर भूमिका में तटस्थ होकर अपने धर्म का पालन किया।
चाहें व्यक्ति उनका परम हित विरोधी ही क्यों ना रहा हो, अगर वह द्वार पर किसी अभिलाषा के साथ आया है तो उसका हेतु अवश्य पूरा होता था। उनके परामर्श और चिंतन में व्यक्ति भेद का कोई स्थान नहीं था।
अपने सम्पूर्ण सामाजिक जीवन में वह सदैव अपने समय को लेकर सजग रहे। चाहें सार्वजनिक कार्यक्रमों में सहभाग करना हो, चाहें किसी को भेंट हेतु समय दिया हो या बतौर सरकारी शिक्षक अपने लेक्चरों को समयबद्ध रूप से संचालित करना हो। समय का महत्व सदैव उनके लिए सर्वोपरि रहा। इसमें करीब आधी से अधिक यात्रा उन्होंने इस घड़ी के सहारे तय की।
चाहें कालांतर में उनकी आर्थिक दशा कितनी ही सुदृढ़ रही हो, उनका नाता इस घड़ी के साथ निर्बाद रूप से बना रहा। अपने अंतिम समय में भी स्ट्रोक के कारण जब वह बोल पाने में असमर्थ थे, तो एक दिन कलाई पर अपनी प्रिय घड़ी को अनुपस्थित पाकर मेरे पिता जी से उन्होंने इशारे से पूछा था की आखिर मेरी घड़ी कहाँ गई? उन्हें संतोष तभी प्राप्त हुआ जब उत्तर में मेरे पिता जी ने अपनी जेब से निकालकर उन्हें उनकी प्रिय घड़ी दिखाई।
उन देहावसान के साथ हमारे परिवार में एक ऐसी पीढ़ी का विधिवत रूप से अंत हो गया जिनके लिए वचनों का मूल्य उनके प्राणों से अधिक था। परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना रहेगी की मुझे वह बस इतनी ही सद्बुद्धि दे कि भूलकर भी कोई ऐसा कर्म ना हो जिससे पूर्वजों के पुरुषार्थ और पुण्यकर्मों पर कोई आँच आए।

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