शंखनाद

सुनो धनंजय, उठो फाल्गुन, बढ़ो ए मेरे पार्थ ।
थामो फिर से गान्डीव, त्यागो किंतु - परंतु में लिपटे यह निहितार्थ ।

प्रत्यंचा की टंकार से फिर अपनी, करो त्रिलोक निहाल ।
टोह रहे तुम्हारे देवदत्त को फिर से, यह धरती, आकाश और पाताल ।

आज हुआ है फिर अभिमन्यु कोई, खल बल के छल का शिकार,
छल - प्रपंच के बाण पुनः हुए हैं निष्कपट सीनों के पार l

चक्रव्यूह के अंतिम व्यूह में आज लिखी गई कायरता से परिपूर्ण पटकथा,
कौरव गण की निर्लज्जता देख, रो रहे जल, थल, नभ भी अपनी अंतरव्यथा ।

सौगन्ध तुम्हें इन वीरों के पावन शव शैया की,
इन शिथिल ललाटों को चूमती, इस शोकाकुल पुरवईया की ।

कुरुक्षेत्र का कण- कण कर रहा कौन्तेय ,तुमसे बस यहीं पुकार,
अबकी जो बह निकले तो अविरल हो शत्रु रुधिर की धार ।

संदेशों - समझौतों की, संधि- सुलह की बीत चुकी है कबकी बेला,
प्रस्थान करो इससे पहले ना पड़ जाए फिर कोई अभिमन्यु अकेला ।

यहाँ तुम ही स्वयं के वासुदेव हो, तुम ही स्वयं के पार्थ ।
खुद को दे पुनः उपदेश श्रीमद का, करो उसे चरितार्थ ।

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