भूली बिसरी बकैतीयाँ!



जो गुज़र गया वह भी वक़्त था , जो गुज़र रहा है वह भी वक़्त है और जो गुज़र जाएगा वह भी वक़्त होगा बहरहाल अपनी साहित्यिक बकैती को विराम देकर अगर मुद्दे पे आऊं तो इतना ही कहूंगा आज से ठीक एक साल पहले हमारी बिक्रम - बेताल की जोड़ी अर्थात मैं और मेरा मित्र Garvit Katyal एक सफर पे निकले थे और आज बिक्रम - बेताल की सफरनामे की पच्चीसी का ज़िक्र करना बहुत प्रासंगिक इसलिए क्योंकि एक यह सफरनामा एक विशिष्ठ प्रकार का adventre साबित हुआ और ज़िन्दगी के चंद लल्लनटाप यादों की फेहरिस्त में शामिल हो गया ।

 


सफरनामे की पच्चीसी शुरुआत ही नोटबंदी रूपी ट्विस्ट से हुई क्योंकि जब तक बिक्रम - बेताल की स्टोरी में ट्विस्ट ना हो तब तक मज़ा कैसा ???? नोटबंदी से हमारी हालत किसी Deckworth - lewis नियम की मारी किसी टीम जैसी हो गयी। हालांकि deckworth - lewis नियम के बावजूद बिक्रम - बेताल की जोड़ी ने पिच पे उतर कर करने बैटिंग का फैसला लिया। तो आखिरकार निकल पड़े अपने सफरनामे पर। बस और ट्रेन मे तमाम तरह की खो - खो -- कबड्डी खेलते हुए आखिर कार अजमेर पहुंच ही गए। पहुंच कर google map पर सवार होकर अपनी मंज़िल अर्थात ख्वाजा जी के दर पर सजदा करने पहुंचे। सजदे के वक़्त पृष्टभूमि में सजी क़व्वाली की महफ़िल दिल का हाल बखूबी बयां कर रही थी। एक बार तो ऐसा लगा की मेरी दुनिया का शायद यही मुकम्मल मुस्तकबिल है पर अगले ही लम्हे अपने अस्तित्व का ख्याल आया और आगे बढ़ चले।



कुछ दूर चलते हुए ढाई दिन के झोपड़े पर पहुंचे और वहां पहुंचकर हम अपनी - अपनी ज्ञान का भण्डार बकैती के माध्यम से उड़ेलने लगे और जब आगे बकैती की कोई गुंजाइश नहीं बची तो वापस स्टेशन की तरफ बढ़ चले और कुछ ज़्यादा बचा नहीं करने को और हमारी ट्रैन को अभी 7 घण्टे का वक़्त बाकी था, तो ऐसे मैं हमारी समय काटने का ज़रिया बनी स्टेशन की free wifi जिसकी मदत से हमने 7 घंटे तक समय की बड़ी निर्ममता से हत्या की। और बीच- बीच में तमाम तरह के व्यंजनों का स्वाद चखा पर फिर भी मेरी ओर से कुछ कसर रह गयी क्यूंकि मेरे बंधुवर के 'ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा' के सिद्धांत ने कई बार ऐसे ही मुझसे अनुपम पदार्थों का त्याग करवाया है l हालाँकि इस त्याग के अपने फायदे भी हुए जिनका तस्करा कभी और l बहरहाल रास्ते भर बकैती करते हुए आखिरकार पहली शाम के दो भूले तीसरी सुबह घर को लौट आए...


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