आविर्भाव....
परिवार के वृद्ध की छत्रछाया, पीपल के छाँव जैसी होती है। बढ़ती आयु के साथ उसकी छाया, उसके गुण-कर्म और भी अधिक सघन हो जाते हैं। उसके समक्ष नतमस्तक होकर आप पर आई हुई साढ़े-साती भी कट जाती है।
पर जब पीपल का वृक्ष अपनी आयु पूरी करके, जीवन चक्र से विरक्त होता है, तब वह अपनी छाँव में आसन्न छोटे पौधों और तिनकों को अनाथ छोड़ जाता है। धूप, बरसात, और आंधियों का सामना करते हुए, अपना अस्तित्व स्वयं बनाने के लिए।
जैसे एक ना एक दिन यह क्षण हर पेड़-पौधे जीवन में आता है, वैसे ही यह क्षण हर मानव के जीवन में भी आता है। जब उसके ऊपर से उस वृद्धजन की छाया हट जाती है, जिसकी छाँव में उसके अस्तित्व को आकार मिला हो।
आज मैं भी उसी भावनिक मझधार के बीच हूँ। अब भी इस बात को मानने में कठिनाई हो रही है कि जिनसे हमने जीवन को अपनी तय शर्तों पर जीना सीखा, स्वयं की इच्छाओं को सम्मान देना सीखा, सत्यनिष्ठाता की वास्तविक शक्ति की पहचान करावाने वाले और उसके साथ उपजने वाले हल्के से अभिमान को नियंत्रित रखने की सीख के साथ, हमें, 'The Art of Learning' की कला में पारंगत करने वाले दादा जी को गो-लोक की यात्रा पर गए लगभग दो साल बीत चुके हैं।
आपके नाम से पहचाना जाना हमारे लिए सौभाग्य की बात रही है। आपके द्वारा संस्कारों में दिए गए स्वाभिमान को आज भी सहेजने का भरपूर प्रयास करते हैं, चाहें परिस्थिति जितनी भी विकट हो।
आपकी अनुपस्थिति में इसे सहेजने का दायित्व और भी अधिक बढ़ गया है। आप जहाँ भी हों बस आपसे इतना ही आशीर्वाद चाहता हूँ कि भूलकर भी मुझसे कोई ऐसा कार्य ना हो, जो आपके दिए गए संस्कारों के विरुद्ध हो। मेरी भाग्यरेखा में कोई ऐसा कर्म ना आए, जिससे आपकी निश्कलंक छवि पर तिल मात्र भी कलंक लगे। अगर मैं अपने शेष मानवीय जीवन में इतना भी कर पाया, तो अपनी इस यात्रा को सफल समझूँगा।

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