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वे रहीम नर धन्य हैं....

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 भक्त रहीम अपने एक दोहे में कहते हैं- वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग। बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग| अर्थात वह लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है। जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है। कुछ ऐसा ही जीवन दादा जी का भी रहा। अपने लगभग 6 दशक के वृहद सामाजिक जीवन में उन्होंने सदैव निष्काम रूप से स्वयं को दूसरों के लिए उप्लब्ध रखा। चाहें विज्ञान के छात्र के रूप में अपने आर्थिक रूप से निर्बल सहपाठियों को अपने स्तर से प्रोत्साहन देना हो, चाहें शिक्षक के रूप में पिछड़े आँचल से आने वाले आभावग्रस्त छात्रों के लिए शिक्षण को सरल बनाना हो, चाहें स्थानीय राजनीति में निर्वाचित जनप्रतिनिधि की भूमिका में अपने कर्तव्यों का सम्यक रूप से निर्वहन करना हो या नागरिक के तौर पर अपने द्वार पर आए हुए सहायता के अभिलाषियों की यथासंभव सहायता करना हो। उन्होंने हर भूमिका में तटस्थ होकर अपने धर्म का पालन किया।   चाहें व्यक्ति उनका परम हित विरोधी ही क्यों ना रहा हो, अगर वह द्वार पर किसी अभिलाषा के साथ आया ह...

आविर्भाव....

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परिवार के वृद्ध की छत्रछाया, पीपल के छाँव जैसी होती है। बढ़ती आयु के साथ उसकी छाया, उसके गुण-कर्म और भी अधिक सघन हो जाते हैं। उसके समक्ष नतमस्तक होकर आप पर आई हुई साढ़े-साती भी कट जाती है। पर जब पीपल का वृक्ष अपनी आयु पूरी करके, जीवन चक्र से विरक्त होता है, तब वह अपनी छाँव में आसन्न छोटे पौधों और तिनकों को अनाथ छोड़ जाता है। धूप, बरसात, और आंधियों का सामना करते हुए, अपना अस्तित्व स्वयं बनाने के लिए। जैसे एक ना एक दिन यह क्षण हर पेड़-पौधे जीवन में आता है, वैसे ही यह क्षण हर मानव के जीवन में भी आता है। जब उसके ऊपर से उस वृद्धजन की छाया हट जाती है, जिसकी छाँव में उसके अस्तित्व को आकार मिला हो। आज मैं भी उसी भावनिक मझधार के बीच हूँ। अब भी इस बात को मानने में कठिनाई हो रही है कि जिनसे हमने जीवन को अपनी तय शर्तों पर जीना सीखा, स्वयं की इच्छाओं को सम्मान देना सीखा, सत्यनिष्ठाता की वास्तविक शक्ति की पहचान करावाने वाले और उसके साथ उपजने वाले हल्के से अभिमान को नियंत्रित रखने की सीख के साथ, हमें, 'The Art of Learning' की कला में पारंगत करने वाले दादा जी को गो-लोक की यात्रा पर गए लगभग दो साल ...

यक्ष प्रश्न 2.0

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  संसार को अब द्वापर से कलयुग में प्रवेश किए काफी समय बीत चुका था। मीमरों के प्रकोप से अब महाभारत की कथा भी अछूती नहीं रह गई थी। जो कार्य 90 के दशक में हरीश भिमानी जी ने 'समय' बनकर किया था, अब वहीं दायित्व मीमरों ने अपने सिर ले लिया था। पठन- पाठन को पहले ही नमस्कार कह चुकी इस पीढ़ी को अब महाभारत की कथा मीमर बांच रहे थे। बहरहाल महाभारत काल से लगाए अब तक कदाचित ही ऐसी कोई चीज़ बची थी, जिसमें परिवर्तन ना आया हो। मानव जाति के इन क्रिया-कलापों को देख असली वाले समय ने अब कथा बांचना बंद कर दिया था। क्योंकि समय अपनी दृष्टी से जिन चीजों को देख रहा था, वह बोलने के योग्य थीं नहीं और जो बोलने योग्य थीं, उन्हें कोई गम्भीरता से लेता नहीं। अब जब लोग समय को ही गम्भीरता से नहीं ले रहे थे, तो भला उसकी बातें कहाँ ठहरतीं? अतः समय ने भी परिस्तिथियों से समझौता करते हुए अपनी वाणी को विराम देने का निर्णय ले लिया और महादेव के तीसरे नेत्र के खुलने की प्रतीक्षा करने लगा। वहीं दूसरी ओर अगर कोई परिवर्तन की बयार से बचा हुआ था, तो वह थे यक्ष। यक्ष का वास अब भी उसी तालाब में था, जिसमें वह महाभारत काल में रहा...

भाई ....

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  गोवा की राजधानी पणजी से 13 किलोमीटर मापुसा नाम का एक कस्बा पड़ता है। यहाँ पर्रा नाम का एक छोटा सा गाँव है। यह गाँव 2 चीज़ों के लिए जाना जाता है। एक है तरबूज और दूसरा है एक शख्स। आखिर वह कौन है, यह जानने के लिये आपको अंत तक चलना होगा। खैर, फिर लौटते हैं पर्रा की ओर जहाँ 60 और 70 के दशक में, जब यहाँ बम्बई जाना विदेश जाने के बराबर था। तब पर्रा की पहचान थी वहाँ का तरबूज़ मेला, जहाँ लोग मुफ्त में जितना चाहें उतना तरबूज खा सकते थे।  बस शर्त इतनी सी थी कि तरबूज़ को खाकर उसका बीज पास रखी हुई टोकरी में थूकना होता था। उन दिनों इस मेले में एक लड़का भी आया करता था।  कुछ समय बाद वह लड़का अपनी आगे की पढ़ाई के लिए बंबई चला गया। कुछ साल बाद जब वह वापस गोवा लौटा तो उसका ठिकाना मापुसा से बदलकर पणजी हो चुका था। एक दिन वह बाज़ार गया तो वह जानकर हैरान रह गया की अब बाज़ार में मापुसा के तरबूज नहीं मिलते।  फिर जब वह तरबूज की खोज में पर्रा पहुँचा तो उसने पाया की तरबूज मेला करवाने वाले ज़्यादातर किसान या तो अब किसानी अपने बेटों को सौंप चुके हैं या अब वह नहीं रहे।  जब कमान उनके बेटों के हाथ आई तो...

बेताल छब्बीसी (भाग-2)

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 खदेडू की दुकान पर चाय-समोसे के साथ इलाके भर की खबरें, कंठ के नीचे पेट भर उतारने के बाद विक्रम-बेताल अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। अभी कुछ दूर चले ही थे कि सामने का दृश्य देखकर दोनों आतंकित हो उठे। सामने से हवलदार पटकन सिंह और हुडदंगी लाल अपनी तोंद छलकाते हुए चले आ रहे थे। हालाँकि उनके चेहरे पर मास्क चढ़ा हुआ था, लेकिन उनके डील-डौल और शारिरीक हाव भाव से उन्हें पहचानना किंचित मात्र भी कठिन नहीं था। दोनों अपने - अपने तंत्रसंचालक अर्थात डंडे, ज़मीन पर पीटते हुए काल की गति से आगे बढ़ रहे थे।  इन्हें देखते ही बेताल ने हड़बड़ी में मास्क पहनने लगा। वहीं पहले से ही मास्क धारण किए बैठे विक्रम ने भी मास्क को थोड़ा ऊपर चढ़ाया। इतने में चलते हुए दोनों हवलदारों के करीब आ गए। पटकन सिन्ह गरज़ते हुए मास्क के भीतर से ही बोले-  "सुने हो ना, जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं। केस कम हो गए इसका मतलब यह नहीं है कि कोरोना खतम हो गया। कोरोना अभी यहीं है और हम भी, ताकि कोई ढिलाई ना बरते। समझे की नहीं?"    कहते हुए पटकन सिंह और हुडदंगी लाल दोनों आगे बढ़ गए। चूँकि सोशल डिस्टेनसिंग की धज्जियाँ हर कोई ...

Cricket Before Crush

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          ऐसा नहीं है कि मेरा, क्रिकेट, और मायूसी का नाता कोई नया है। यह नाता तब का है जब धोनी खड़गपुर रेलवे स्टेशन पर यात्रिओं के टिकट चेक कर रहे थे, अटल- आड़वाणी की जोड़ी 'इंडिया शाईनिंग' के नारे को गढ़ने में व्यस्त थी, वसीम और वक़ार पाकिस्तानी गेंदबाज़ी की धुरी थे, वर्तमान पाकिस्तानी पेस बैटरी के सितारे नसीम शाह मात्र एक महीने के थे और पलंग में लोटे, किलकारि भर रहे थे। सद्दाम हुसैन का सिक्का इराक़ पर जमकर चल रहा था और सेट मैक्स पर सूर्यवंशम और डॉन नं. 1 के अलावा क्रिकेट भी आता था। 23 मार्च 2003 का दिन था, प्रमुख खबरों में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और कश्मीर के नदिमर्ग में मारे गए 24 कश्मीरी पंडित होते अगर भारत ऑस्ट्रेलिया के साथ विश्व कप के फाइनल में भिड़ नहीं रहा होता।  वहीं टीम जिसका एक महीने पहले नीदरलैंड के हाथों लगभग छीछालेदर होते-होते बचा था, आज कप जीतने से सिर्फ एक पग दूर थी। देश भर में खेल प्रेमियों का जुनून अपने उरूज पर था।  क्रिकेट के शौकीन पिता जी ने मेरे लिए बड़े चाव से एक भारतीय टीम की जर्सी बनवाई थी, जिसपर मेरा नाम लिखा था। हर खास दिन की तरह, ...

एक नज़रिया और.............

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 कथा - कैदी                                          लेखिका - अंजलि चौधरी बात आज से कुछ वर्ष पूर्व की है, जब रंगमंच शब्द से वास्तव में मेरा परिचय होना आरंभ ही हुआ था। इसी क्रम में उन दिनों मंडी हाउस के विख्यात श्री राम आर्ट सेंटर में मेरा आवागमन सहसा बढ़ गया था। उसी गति से, जिस गति से उन दिनों अवैध बूचड़खानों की तरह नए-नए यूट्यूब चैनल उपट रहे थे।  उस परिसर में इतना रम चुका था कि प्रांगण के भीतर होने वाले काल्पनिक कथाओं पर आधारित नाटक से लगाए, बाहर सड़क पर होने वाले असली तमाशे की पटकथा, संवाद सबकुछ कंठस्थ हो चुके थे। एकदिन परिसर के प्रांगण में चकल्लस झाड़ते हुए एक छोटे से हस्तनिर्मित पोस्टर पर नज़र पड़ी।  उसपर अन्ग्रेजी में एक कथन उकेरा हुआ था, जो कुछ यूँ था-  "Our demands are simple, normal, and therefore they are difficult to satisfy. All we ask is that an actor on the stage live in accordance with natural laws." इसके ठीक नीचे एक नाम लिखा था, जिसे पूरा पढ़ने हेतु मुझे ...